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बे-तू ऐ माह चे साज़म चे कुनम

फ़ैज़ी

बे-तू ऐ माह चे साज़म चे कुनम

फ़ैज़ी

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    बे-तू माह चे साज़म चे कुनम

    चे कुनम आह चे साज़म चे कुनम

    महबूब मैं तुम्हारे बग़ैर क्या करूँ? क्या करूँ, अफ़सोस मैं क्या करूँ?

    बख़्त-ए-बरगश्तः मन अज़ 'उम्र-ए-मलूल

    हिज्र-ए-जाँ-काह चे साज़म चे कुनम

    मेरी बदनसीबी मेरी इस उम्र-ए-मलूल की वजह से है, इस विरह में आख़िर मैं क्या करूँ?

    सफ़र-ए-'इश्क़ ख़तर-हा दारद

    मन दरीं राह चे साज़म चे कुनम

    इश्क़ के सफ़र में बेशुमार ख़तरे हैं, मैं इस रास्ते में क्या करूँ?

    कुंगुर:-ए-वस्ल बुलंद अस्त बुलंद

    दस्त-ए-कोताह चे साज़म चे कुनम

    विसाल का ताक़ बेहद बुलंद है, बेहद बुलंद, और मेरे हाथ बहुत छोटे हैं

    मैं क्या करूँ कैसे उन तक पहुँच जाऊँ?

    आह-ए-ना-दीद: रुख़श गर ब-रसद

    मर्ग-ए-नागाह चे साज़म चे कुनम

    अगर उसके (महबूब) अनदेखे चेहरे का दीदार यूँ ही हो जाए, और अचानक मौत जाए तो मैं क्या करूँ?

    'फ़ैज़ी' अज़ सोख़्तन-ए-मन दिलदार

    नीस्त आगाह चे साज़म चे कुनम

    फ़ैज़ी, मेरी जलन-ओ-तकलीफ़ की दिलदार को अगर कोई ख़बर नहीं,

    तो मैं क्या करूँ?

    स्रोत :
    • पुस्तक : नग़्मात-ए-सिमा (पृष्ठ 249)
    • प्रकाशन : नूरुलहसन मौदूदी साबरी (1935)

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