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सनमा रह-ए-क़लन्दर सज़द अर ब-मन नुमाई

फ़ख़रुद्दीन इराक़ी

सनमा रह-ए-क़लन्दर सज़द अर ब-मन नुमाई

फ़ख़रुद्दीन इराक़ी

सनमा रह-ए-क़लन्दर सज़द अर ब-मन नुमाई

कि दराज़-ओ-दूर दीदम रह-ओ-रस्म-ए-पारसाई

सनम अगर तू अपना जल्वा दिखा दे तो क़लंदरों जैसी ज़िन्दगी ही बेहतर है

इसलिए कि पवित्रता की रह-गुज़र काफ़ी दूर और लम्बी है

ब-तवाफ़-ए-का'बः रफ़्तम ब-हरम रहम न-दादन्द

कि बैरून-ए-दर चे कर्दी कि दरून-ए-ख़ान:आई

मैं का’बे की परिक्रमा को गया लेकिन मुझे हरम में जाने की इजाज़त नहीं मिली

मुझे कहा गया कि दरवाज़े के बाहर तू ने क्या किया कि तू अंदर आना चाहता है

ब-ज़मीं चु सज्द: कर्दम ज़े ज़मीं निदा बर-आमद

कि मरा ख़राब कर्दी तू ब-सज्द:-ए-रियाई

मैं ने जब ज़मीन पर सज्दा किया तो ज़मीन से आवाज़ आई

कि तू ने दिखावे का सज्दा कर के मुझे बर्बाद कर दिया

न-शवद नसीब-ए-दुश्मन कि शवद हलाक-ए-तेग़त

सर-ए-दोस्ताँ सलामत कि तू ख़ंजर आज़माई

दुश्मन का ये नसीब कहाँ कि वो तेरी तल्वार से मर जाए

दोस्तों का सर सलामत हैं तू ख़ंजर चलाता जा

दर-ए-दैर चूँ ज़दम मन ज़े दरूँ निदा बर-आमद

कि बिया बिया 'इराक़ी' तू ज़े ख़ासगान-ए-माई

जब मैं ने बुत-ख़ाने का दरवाज़ा खटखटाया तो अंदर से आवाज़ आई

कि ‘इ’राक़ी’ अंदर जा कि तू हमारा ख़ास आदमी है

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हाजी महबूब अ'ली

हाजी महबूब अ'ली

स्रोत :
  • पुस्तक : नग़मातुल उंस फ़ी मजालिसिल क़ुदस (पृष्ठ 295)
  • रचनाकार :शाह हिलाल अहमद क़ादरी
  • प्रकाशन : दारुल एशा'अत ख़ानक़ाह मुजीबिया (2016)
  • संस्करण : First

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