Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

।। बिहारी सतसई ।।

बिहारी

।। बिहारी सतसई ।।

बिहारी

MORE BYबिहारी

    मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोइ।

    जा तन की झांईं परैं स्यामु हरित-दुति होइ।।1।।

    अपने अँग कै जानि कै जोबन-नृपति प्रबीन।

    स्तन मन नैन नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन।।2।।

    अर तैं टरत बर-परे दई मरक मनु मैन।

    होड़ाहोड़ी बढ़ि चले चितु चतुराई नैन।।3।।

    औरै ओप कनीनिकनु गनी घनी सिरताज।

    मनीं धनी के नेह की बनीं छनीं पट लाज।।4।।

    सनि कज्जल चख-झख-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु।

    क्यौं नृपति ह्वै भोगवै लहि सुदेसु सबु देहु।।5।।

    सालति है नटसाल सी क्यौं हूं निकसति नाहिँ।

    मनमथ-नेजा-नोक सी खुभी खुभी जिय माहिँ।।6।।

    जुवति जोन्ह मैं मिलि गई नैंक होति लखाइ।

    सौंधे कैं डोरैं लगी अली चली सँग जाइ।।7।।

    हौं रीझी लखि रीझिहौ छबिहिँ छबीले लाल।

    सोनजुही सी होति दुति मिलत मालती माल।।8।।

    बहके सब जिय की कहत ठौरु कुठौरु लखैं न।

    छिन औरै छिन और से छबि छाके नैन।।9।।

    फिरि फिरि चितु उतहीं रहतु टुटी लाज की लाव।

    अंग-अंग-छबि-झौंर मैं भयौ भौंर की नाव।।10।।

    नीकी दई अनाकनी फीकी परी गुहारि।

    तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि।।11।।

    चितई ललचौहैं चखनु डटि घूँघट-पट मांह।

    छल सौं चली छुवाइकै छिनकु छबीली छांह।।12।।

    जोग-जुगति सिखए सबै मनौ महामुनि मैन।

    चाहत पिय-अद्वैतता काननु सेवत नैन।।13।।

    खरी पातरी कान की कौन बहाऊ बानि।

    आक-कली रली करै अली अली जिय जानि।।14।।

    पिय-बिछुरन कौ दुसहु दुखु हरषु जात प्यौसार।

    दुरजोधन लौं देखियति तजत प्रान इहि बार।।15।।

    झीनैं पट मैं झुलमुली झलकति ओप अपार।

    सुरतरु की मनु सिधु मैं लसति सपल्लव डार।।16।।

    डारे ठोड़ी-गाड़ गहि नैन-बटोही मारि।

    चिलक-चौंध मैं रूप-ठग हांसी-फांसी डारि।।17।।

    कीनैं हूं कोरिक जतन अब कहि काढ़ौ कौनु।

    भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं को लौनु।।18।।

    लग्यो सुमनु ह्वै है सफलु आतप-रोसु निवारि।

    बारी बारी आपनी सींचि सुहृदयता-बारि।।19।।

    अजौं तखौना हीं रह्यौ स्रुति सेवत इक-रंग।

    नाक-बास बेसरि लह्यौ बसि मुकुतनु कैं संग।।20।।

    जम-करि-मुँह तरहरि परवो इहिँ धरहरि चित लाउ।

    बिषय-तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ।।21।।

    पलनु पीक अंजनु अधर धरे महावरु भाल।

    आजु मिले सु भली करी भले बने हौ लाल।।22।।

    लाज गरब आलस उमग भरे नैन मुसकात।

    राति रमी रति देति कहि औरै प्रभा प्रभात।।23।।

    पति रति की बतियां कहीं सखी लखी मुसकाइ।

    कै कै सबै टलाटलीं अलीं चलीं सुखु पाइ।।24।।

    तो पर वारौं उरबसी सुनि राधिके सुजान।

    तू मोहन कै उर बसी ह्वै उरबसी समान।।25।।

    कुच-गिरि चढ़ि अति थकित ह्वै चली डीठि मुँह-चाड़।

    फिरि टरी परियै रही गिरी चिबुक की गाड़।।26।।

    बेधक अनियारे नयन बेधत करि निषेधु।

    बरबट बेधतु मो हियौ तो नासा कौ बेधु।।27।।

    लीनैं मुहुँ दीठि लगै यौं कहि दीनौ ईठि।

    दूनी है लागन लगी दियैं दिठौना दीठि।।28।।

    चितवनि रूखे दृगनु की हांसी बिनु मुसकानि।

    मानु जनायौ मानिनी जानि लियौ पिय जानि।।29।।

    सब ही त्यौं समुहाति छिनु चलति सबनु दै पीठि।

    वाही त्यौं ठहराति यह कविलनवी लौं दीठि।।30।।

    कौन भांति रहिहै बिरदु अब देखिबी मुरारि।

    बीधे मोसौं आइ कै गीधे गीधहिं तारि।।31।।

    कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात।

    भरे भौन मैं कहत हैं नैननु हों सब बात।।32।।

    वाही की चित चटपटी धरत अटपटे पाइ।

    लपट बुझावत बिरह की कपट भरेऊ आइ।।33।।

    लखि गुरुजन बिच कमल सौं सीसु छुवायौ स्याम।

    हरि सनमुख करि आरसी हियैं लगाई बाम।।34।।

    पाइ महावरु दैंन कौं नाइनि बैठी आइ।

    फिरि फिरि जानि महावरी एड़ी मीड़ति जाइ।।35।।

    तोहीं निरमोही लग्यौ मो ही इहैं सुभाउ।

    अन आऐं आवै नहीं आऐं आवतु आउ।।36।।

    नेहु नैननु कौं कछू उपजी बड़ी बलाइ।

    नीर भरे नित प्रति रहैं तऊ प्यास बुझाइ।।37।।

    नहि परागु नहिँ मधुर मधु नहिँ बिकासु इहिँ काल।

    अली कली ही सौं बँध्यौ आगैं कौन हवाल।।38।।

    लाल तुम्हारे बिरह की अगनि अनूप अपार।

    सरसै बरसैं नीर हूं झर हूं मिटै झार।।39।।

    देह दुलहिया की बढ़ै ज्यौं ज्यौं जोबन-जोति।

    त्यौं त्यौं लखि सौत्यैं सबैं बदन मलिन दुति होति।।40।।

    जगतु जनायौ जिहिँ सकलु सो हरि जान्यौ नांहि।

    ज्यों आखिनु सब देखियै आँखि देखी जांहि।।41।।

    मंगलु बिंदु सुरंगु मुखु ससि केसरि आड़ गुरु।

    इक नारी लहि संगु रसमय किय लोचन-जगत।।42।।

    पिय तिय सौं हँसि कै कह्यौ लखैं दिठौना दीन।

    चंदमुखी मुखचंदु तैं भली चंद समु कीन।।43।।

    कौंहर सी एड़ीनु की लाली देखि सुभाइ।

    पाइ महावरु देइ को आपु भई बे-पाइ।।44।।

    खेलन सिखए अलि भलैं चतुर अहेरी मार।

    कानन-चारी नैन-मृग नागर नरनु सिकार।।45।।

    रस-सिँगार-मंजनु किए कंजनु भंजनु दैन।

    अंजनु रंजनु हूं बिना खंजनु गंजनु नैन।।46।।

    साजे मोहन-मोह कौं मोहीं करत कुचैन।

    कहा करौं उलटे परे टोने लोने नैन।।47।।

    याकैं उर औरै कछू लगी बिरह की लाइ।

    पजरै नीर गुलाब कैं पिय की बात बुझाइ।।48।।

    कहा लेहुगे खेल पैं तजौ उपपटी बात।

    नैंक हँसौंहीं हैं भई भौंहैं सौंहैं खात।।49।।

    डारी सारी नील की ओट अचूक चुकैं न।

    मो मन मृगु करबर गहैं अहे अहेरी नैन।।50।।

    दीरघ सांस लेहि दुख सुख साईहिँ भूलि।

    दई दई क्यों करतु है दई दई सु कबूलि।।51।।

    बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन-तन मांह।

    देखि दुपहरी जेठ की छांहौं चाहति छांह।।52।।

    हा हा बदनु उघारि दृग सफल करैं सब कोइ।

    रोज सरोजनु कैं परै हँसी ससी की होइ।।53।।

    होमति सुखु करि कामना तुमहिँ मिलन की लाल।

    ज्वालमुखी सी जरति लखि लगनि-अगनि की ज्वाल।।54।।

    सायक-सम मायक नयन रँगे त्रिबिध रँ गात।

    झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जलजात लजात।।55।।

    मरी डरी कि टरी बिथा कहा खरी चलि चाहि।

    रही कराहि कराहि अति अब मुँह आहि आहि।।56।।

    कहा भयौ जौ बीछुरे मो मनु तो मन साथ।

    उड़ी जाउ कित हूं तऊ गुड़ी उड़ाइक-हात।।57।।

    लखि लोने लोइननु कैं कोइनु होइ आजु।

    कौन गरीबु निवाजिबौ कित तूठयौ रतिराजु।।58।।

    सीतलताअरु सुबास कौ घटै महिमा-मरु।

    पीनसवारैं जौ तज्यौ सोरा जानि कपूरु।।59।।

    कागद पर लिखत बनत कहत सँदेसु लजात।

    कहिहै सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात।।60।।

    बंधु भए का दीन के को ताखौ रघुराइ।

    तूठे तूठे फिरत हौ झूठे बिरद कहाइ।।61।।

    जब जब वै सुधि कीजियै तब तब सब सुधि जाहिँ।

    आँखिनु आंखि लगी रहैं आंखैं लागति नाहिँ।।62।।

    कौन सुनै कासौं कहौं सुरति बिसारी नाह।

    बदाबदी ज्यौं लेत हैं बदरा बदराह।।63।।

    मैं हो जान्यौ लोइननु जुरत बाढ़िहै जोति।

    को हो जानतु दीठि कौं दीठि किरकिटी होति।।64।।

    गहकि गांसु औरै गहे रहे अधकहे बैन।

    देखि खिसौंहैं पिय-नयन किए रिसौंहैं नैन।।65।।

    मैं तोसौं कै बा कह्यौ तू जिन इन्हैं पत्याइ।

    लगालगी करि लोइननु उर मैं लाई लाइ।।66।।

    बर जीते सर मैन के ऐसे देखे मैं न।

    हरिनी के नैनानु तैं हरि नीके नैन।।67।।

    थोरैं ही गुन रीझते बिसराई वह बानि।

    तुमहूँ कान्ह मनौ भए आजकाल्हि के दानि।।68।।

    अंग अंग नग जगमगत दीपसिखा सी देह।

    दिया बढ़ाऐं हूं रहै बड़ौ उज्यारौ गेह।।69।।

    छुटी सिसुता की झलक झलक्यौ जोबनु अंग।

    दीपति देह दुहूनु मिलि दिपति ताफता-रंग।।70।।

    कब कौ टेरतु दीन रट होत स्याम सहाइ।

    तुमहूं लागी जगत-गुरु जग-नाइक जग-बाइ।।71।।

    सकुचि रहियै स्याम सुनि सतरौंहैं बैन।

    देत रचौंहौं चित कहे नेह-नचौंहैं नैन।।72।।

    पत्रा हीं तिथि पाइयै वा घर कैं चहुँ पास।

    नित प्रति पून्यौई रहै आनन-ओप-उजास।।73।।

    बसि सकोच दसबदन बस सांचु दिखावति बाल।

    सिय लौं सोधति तिय तनहिँ लगनि-अगनि की ज्वाल।।74।।

    जौ जुगति पिय मिलन की धूरि मुकति मुँह दीन।

    जौ लहियै सँग सजन तौ धरक नरक हूँ की न।।75।।

    चमक तमक हांसी ससक मसक झपट लपटानि।

    जिहिँ रति सो रति मुकति और मुकति अति हानि।।76।।

    मोहूं सौं तजि मोहु, दृग चले लागि उहिँ गैल।

    छिनकु छाइ छबि-गुर-डरी छले छबीलैं छैल।।77।।

    कंज-नयनि मंजनु किए बैठी ब्यौरति बार।

    कच-अँगुरी-बिच दीठि दै चितवति नंदकुमार।।78।।

    पावक सो नयननु लगै जावकु लाग्यौ भाल।

    मुकुरु होहुगे नैंक मैं मुकुरु विलोकौ लाल।।79।।

    रहति रन जयसाहि-मुख लखि लाखनु की फौज।

    जांचि निराखरऊ चलै लै लाखनु की मौज।।80।।

    दियौ सु सीस चढ़ाइ लै आछी भांति अएरि।

    जापैं सुखु चाहतु लियौ ताके दुखहिँ फेरि।।81।।

    तरिवन-कनु कपोल-दुति बिच बीच ही बिकान।

    लाल लाल चमकतिँ चुनी चौका-चीन्ह-समान।।82।।

    मोहि दयौ मेरौ भयौ रहतु जु मिलि जिय साथ।

    सो मनु बांधि सौंपिए पिय सौतिनि कैं हात।।83।।

    कुंज-भवनु तजि भवन कौं चलियै नंदकिसोर।

    फूलति कली गुलाब की चटकाहट चहुँ ओर।।84।।

    कहति देवर की कुबत कुल-तिय कलह डराति।

    पंजर-गत मंजार-ढिँग सुक ज्यौं सूकति जाति।।85।।

    औरै भांति भएअब चौसरु चंदनु चंदु।

    पति बिनु अति परतु बिपति मारतु मारुतु मंदु।।86।।

    चलन पावतु निगम-मगु जगु उपज्यौ अति त्रासु।

    कुच-उतंग गिरिबर ह्यौ मैना मैनु मवासु।।87।।

    त्रिबली नाभि दिखाइ कर सिर ठकि सकुचि समाहि।

    गली अली की ओट कै चली भली बिधि चाहि।।88।।

    देखत बुरै कपूर ज्यौं उपै जाइ जिन लाल।

    छिन छिन जाति परी खरी छीन छबीली बाल।।89।।

    हँसि उतारि हिय तैं दई तुम जु तिहिँ दिनी लाल।

    राखति प्रान कपूर ज्यौं वहै चुहुटिनी-माल।।90।।

    कोऊ कोरिक संग्रहौ कोऊ लाख हजार।

    मो संपति जदुपति सदा बिपति-बिदारनहार।।91।।

    द्वैज सुधादीधिति-कला लखि लखि दीठि लगाइ।

    मनौ अकास-अगस्तिया एकै कली लखाइ।।92।।

    गदराने तन गोरटी ऐपन-आड़ लिलार।

    हूठयौ दै इठलाइ दृग करै गँवारि सुवार।।93।।

    तंत्री-नाद कवित्त-रस सरस-राग रति-रंग।

    अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े अंग।।94।।

    सहज सचिक्कन स्याम-रुचि सुचि सुगंध सुकुमार।

    गनतु मनु पथु अपथउ लखि बिथरे सुथरे बार।।95।।

    सुदुति दुराई दुरति नहिँ प्रगट करति रति-रूप।

    छुटैं पीक औरै उठी लाली ओठ अनूप।।96।।

    वेई गड़ि गाड़ैं परीं उपटयौ हारु हियैं न।

    आन्यौ मोरि मतंगु मनु मारि गुरेरनु मैन।।97।।

    नैंक झुरसी बिरह-झर नेह-लता कुम्हिलाति।

    नित नित होति हरी हरी खरी झालरति जाति।।98।।

    हेरि हिँडोरैं गगन तैं परी परी सी टूटि।

    धरी धाइ तिय बीच ही करी खरी रस लूटि।।99।।

    नैंक हँसौंही बानि तजि लख्यौ परतु मुहुँ नीठि।

    चौका-चमकनि-चौंध मैं परति चौंधि सी डीठि।।100।।

    प्रगट भए द्विजराज-कुल सुबस बसे ब्रज आइ।

    मेरे हरौ कलेस सब केसव केसवराइ।।101।।

    केसरि कै सरि क्यौं सकै चंपकु कितकु अनूपु।

    गात-रूपु लखि जातु दुरि जातरूप कौ रूपु।।102।।

    मकराकृति गोपाल कैं सोहत कुंडल कान।

    धरयौ मनौ हिय-धर समरु डयौढ़ी लसत निसान।।103।।

    खौरि-पनिच भृकुटी-धनुषु बधिकु समरु तजि कानि।

    हनतु तरुन-मृग तिलक-सर सुरक-भाल भरि तानि।।104।।

    नीकौ लसतु लिलार पर टीकौ जरितु जराइ।

    छबिहिँ बढ़ावतु रबि मनौ ससि-मंडल मैं आइ।।105।।

    लसतु सेत सारी ढप्यौ तरल तरवौना कान।

    परवौ मनौ सुरसरि-सलिल रबि-प्रतिबिंबु बिहान।।106।।

    हम हारीं कै कै हहा पाइनु पारवौ प्यौरु।

    लेहु कहा अजहूं किए तेह-तरेखौ त्यौरु।।107।।

    सतर भौंह रूखे बचन करति कठिनु मनु नीठि।

    कहा करौं ह्वै जाति हरि हेरि हँसौंही डीठि।।108।।

    वाहि लखैं लोइन लगै कौन जुवति की जोति।

    जाकैं तन की छांह-ढिग जोन्ह छांह सी होति।।109।।

    कहा कहौं वाकी दसा, हरि प्राननु कै ईस।

    बिरह-ज्वाल जरिबो लखैं मरिबौ भई असीस।।110।।

    जेती संपति कृपन कैं तेती सूमति जोर।

    बढ़त जात ज्यौं ज्यौं उरज त्यौं त्यौं होत कठोर।।111।।

    ज्यौं ज्यौंजोबन-जेठ दिन कुच मिति अति अधिकाति।

    त्यौं त्यौं छिन छिन कटि-छपा छीन परति नित जाति।।112।।

    तेह-तरेरौ त्यौरु करि कत करियत दृग लोल।

    लीक नहीं यह पीक की स्रुति-मनि-झलक कपोल।।113।।

    नैंक जानी परति यौं परयौ बिरह तनु छामु।

    उठति दियैं लौं नांदि हरि लियै तिहारौ नामु।।114।।

    नभ-लाली चाली निसा चटकाली धुनि कीन।

    रति पाली आली अनत आए बनमाली न।।115।।

    सोवत सपनैं स्याम-घनु हिलि मिलि हरत बियोगु।

    तब हीं टरि कितहूं गई, नींदौ नींदनु जोगु।।116।।

    संपति केस सुदेस नर नवत दुहुनि इक बानि।

    बिभव सतर कुच नीच नर नरम बिभव की हानि।।117।।

    कहत सबै कबि कमल से मो मत नैन पखानु।

    नतरुक कत इन बिय लगत उपजतु बिरह-कृसानु।।118।।

    हरि हरि बरि बरि उठति है करि करि थकी उपाइ।

    वाकौ जुरु बलि बैद जौ तो रस जाइ तु जाइ।।119।।

    यह बिनसतु नगु राखि कै जगत बड़ौ जसु लेहु।

    जरी बिषम जुर जाइयै आइ सुंदरसनु देहु।।120।।

    या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिँ कोइ।

    ज्यौं ज्यौं बूड़ै स्याम रँग त्यौं त्यौं उज्जलु होइ।।121।।

    बिय सौतिनु देखत दई अपने हिय तैं लाल।

    फिरति सबनु मैं डहडही उहैं मरगजी माल।।122।।

    छला छबीले लाल कौ नवल नेह लहि नारि।

    चूँबति चाहति लाइ उर पहिरति धरति उतारि।।123।।

    नित संसौ हंसौ बचतु मनौ सु इहिँ अनुमानु।

    बिरह-अगिनि-लपटनु सकतु झपटि मीचु-सचानु।।124।।

    थाकी जतन अनेक करि नैंक छाड़ति गैल।

    करी खरी दुबरी सु लगि तेरी चाह-चुरैल।।125।।

    लाज गहौ बेकाज कत घेरि रहे घर जांहि।

    गोरसु चाहत फिरत हौ गोरसु चाहत नांहि।।126।।

    घाम घरीक निवारियै कलित ललित अलि-पुंज।

    जमुना-तीर तमाल-तरु मिलित मालती-कुंज।।127।।

    उन हरकी हँसि कै इतै इन सौंपी मुसकाइ।

    नैन मिलैं मन मिलि गए दोऊ मिलवत गाइ।।128।।

    परवौ जोरु बिपरीत रति रुपी सुरत-रन-धीर।

    करति कुलाहलु किकिनी गह्यौ मौनु मंजीर।।129।।

    बिनती रति बिपरीत की करी परसि पिय पाइ।

    हँसि अनबोलैं ही दियौ ऊतरु दियौ बताइ।।130।।

    कैसैं छोटे नरनु तैं सरत बड़नु के काम।

    मढ़पौ दमामौ जातु क्यौं कहि चूहे कैं चाम।।131।।

    सकत तुव ताते बचन मो रस कौ रसु खोइ।

    खिन खिन औटे खीर लौं खरौ सवादिलु होइ।।132।।

    कहि लहि कौनु सकै दुरी सौनजाइ मैं जाइ।

    तन की सहज सुबास बन देती जौ बातइ।।133।।

    चाले की बातैं चलीं सुनत सखिनु कैं टोल।

    गोऐं हूँ लोइन हँसत बिहँसत जात कपोल।।134।।

    सनु सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखारि।

    हरी हरी अरहरि अजौं धरि धरहरि जिय नारि।।135।।

    आए आपु भली करी मेटन मान-मरोर।

    दूरि करौ यह देखिहै छला छिगुनिया-छोर।।136।।

    मेरे बूझत बात तू कत बहरावति बाल।

    जग जानी बिपरीत रति लखि बिँदुली पिय-भाल।।137।।

    फिरि फिरि बिलखी ह्वै लखति फिरि फिरि लेति उसासु।

    साईं सिर-कच-सेत लौ बीत्यौ चुनति कपासु।।138।।

    डगकु डगति सी चलि ठठुकि चितई चली निहारि।

    लिए जाति चितु चोरटी वहै गोरटी नारि।।139।।

    करी बिरह ऐसी तऊ गैल छाड़तु नीचु।

    दीनैं हूँ चसमा चखनु चाहै लहै मीचु।।140।।

    जपमाला छापा तिलक सरै एकौ कामु।

    मन-कांचै नाच बृथा सांचै रांचै रामु।।141।।

    जो वाके तन की दसा देख्यौ चाहत आपु।

    तौ बलि नैंक बिलोकियै चलि अचकां चुपचापु।।142।।

    जटिल नीलमनि जगमगति सींक सुहाई नांक।

    मनौ अली चंपक-कली बसि रसु लेतु निसांक।।143।।

    फेरु कछुक करि पौरि तैं फिरि चितई मुसकाइ।

    आई जावनु लैन जिय नेहैं चली जमाइ।।144।।

    जदपि तेज रौहाल-बल पलकौं लगी बार।

    तौ ग्वैंड़ौ घर कौ भयौ पैड़ौ कोस हजार।।145।।

    पूस-मास सुनि सखिनु पैं साईं चलत सवारु।

    गहि कर बीन प्रबीन तिय राग्यौ रागु मलारु।।146।।

    बन तन कौं निकसत लसत हँसत हँसत इत आइ।

    दृग-खंजन गहि लै चल्यौ चितवनि-चैंपु लगाइ।।147।।

    मरनु भलौ बरु बिरह तैं यह निहचय करि जोइ।।

    मरन मिटै दुखु एक कौ बिरह दुहूं दुखु होइ।।148।।

    हरषि बोली लखि ललनु निरखि अमिलु सँग साथु।

    आंखिनु हीं मैं हँसि धरवौ सीस हियैं धरि हाथु।।149।।

    को जानै ह्वै है कहा ब्रज उपजी अति आगि।

    मन लागै नैननु लगैं चलै मग लगि लागि।।150।।

    घरु घरु डोलत दीन ह्वै जनु जनु जाचतु जाइ।

    दियैं लोभ चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाइ।।151।।

    लै चुभकी चलि जाति जित जित जल केलि अधीर।

    कीजत केसरि-नीर से तित तित के सरि नीर।।152।।

    छिरके नाह नबोढ़ दृग कर-पिचकी-जल-जोर।

    रोचन रँग लाली भई बिय तिय-लोचन-कोर।।153।।

    कहा लड़ैते दृग करे परे लाल बेहाल।

    कहुँ मुरली कहुँ पीत पटु कहूँ मुकुट बनमाल।।154।।

    राधा हरि हरि राधिका बनि आए संकेत।

    दंपति रति-बिपरीत-सुखु सहज सुरतहूं लेत।।155।।

    चलत पाइ निगुनी गुनी धनु मनि-मुत्तिय-माल।

    भेंट होत जयसाहि सौं भागु चाहियतु भाल।।156।।

    जसु अपजसु देखत नहीं देखत सावल गात।

    कहा करौं लालच-भरे चपल नैन चलि जात।।157।।

    नख सिख रूप भरे खरे तौ मांगत मुसकानि।

    तजत लोचन लालची ललचौंही बानि।।158।।

    छ्वै छिगुनी पहुँची गिलत अति दीनता दिखाइ।

    बलि बावन कौ ब्यौतु सुनि को बलि तुम्हें पत्याइ।।159।।

    नैना नैंक मानही कितो कह्यो समुझाइ।

    तनु मनु हारैं हूं हँसैं तिन सौं कहा बसाइ।।160।।

    मोहन मूरति स्याम की अति अदभुत गति जोइ।

    बसतु सु-चित अंतर तऊ प्रतिबिंबितु जग होइ।।161।।

    लटकि लटकि लटकतु चलतु डटतु मकुट की छांह।

    चटक भरयो नटु मिलि गयौ अटक भटक बट मांह।।162।।

    मलिन देह वेई बसन मलिन बिरह कैं रूप।

    पिय-आगम औरै चढञी आनन ओप अनूप।।163।।

    रँगराती रातैं हियैं प्रियतम लिखी बनाइ।

    पाती काती बिरह की छाती रही लगाइ।।164।।

    लाल अलौकिक लरिकई लखि लखि सखी सिहांति।

    आज काल्हि मैं देखियतु उर उकसौंही भांति।।165।।

    बिलखी डभकौंहैं चखनु तिय लखि गवनु बराइ।

    पिय गहवरि आएँ गरैं राखी गरैं लगाइ।।166।।

    प्रतिबिंबित जयसाहि दुति दीपति दरपन-धाम।

    सबु जगु जीतन कौं करवो काय ब्यूहु मनु काम।।167।।

    बाल कहा लाली भई लोइन-कोइनु मांह।

    लाल तुम्हारे दृगनु की परी दृगनु मैं छांह।।168।।

    तरुन कोकनद बरन बर भए अरुन निसि जागि।

    वाही कैं अनुराग दृग रहे मनौ अनुरागि।।169।।

    तजतु अठान हठ परवो सठमति आठौ जाम।

    भयौ बामु वा बाम कौं रहै कामु बेकाम।।170।।

    आवत जात जानियतु तेजहिं तजि सियरानु।

    घरहँ जँवाई लौं घटयौ खरौ पूस दिन-मानु।।171।।

    चलत चलत लौं लै चलै सब सुख संग लगाइ।

    ग्रीषम-बासर सिसिर-निसि प्यौ मो पास बसाइ।।172।।

    बेसरि-मोती-दुति-झलक परी ओठ पर आइ।

    चूनौ होइ चतुर तिय क्यों पट पोंछयौ जाइ।।173।।

    चितु बितु बचतु हरत हठि लालन-दृग बरजोर।

    सावधान के बटपरा जागत के चोर।।174।।

    बिकसित नवमल्ली-कुसुम निकसित परिमल पाइ।

    रपरसि पजारति बिरहि-हिय बरसि रहे की बाइ।।175।।

    गोप अथाइनु तैं उठे गोरज छाई गैल।

    चलि बलि अलि अभिसार की भली सँझौखैं सैल।।176।।

    पहुँचति डटि रन-सुभट लौं रोकि सकैं सब नांहि।

    लाखनु हूं की भीर मैं आंखि उनहीं चलि जांहि।।177।।

    सरस सुमिल चित-तुरँग की करि करि अमित उठान।

    गोइ निबाहैं जीतियै खेलि प्रम-चौगान।।178।।

    हँसि हँसि हेरति नवल तिय मद के मद उमदाति।

    बलकि बलकि बोलति बचन ललि ललकि लपटाति।।179।।

    मिलि चंदन-बेंदी रही गोरैं मुँह लखाइ।

    ज्यौं ज्यौं मद-लाली चढ़े त्यौं त्यौं उघरति जाइ।।180।।

    मैं समुझवौ निरधार यह जगु कांचो कांच सौ।

    एकै रूपु अपार प्रतिबिंबित लखियतु जहां।।181।।

    जहां जहां ठाढ़ौं लख्यौ स्यामु सुभग-सिरमौरु।

    बिन हूं उन छिनु गहि रहतु दृगनु अजौं वह ठौरु।।182।।

    रँगी सुरत-रंग पिय हियै लगी जगी सब राति।

    पैंड़ पैड़ पर ठठुकि कै ऐड़-भरी ऐड़ाति।।183।।

    लालन लहि पाऐ दुरै चोरी सौंह करैं न।

    सीस चढे पनिहा प्रगट कहैं पुकारैं नैन।।184।।

    तुरत सुरत कैसैं दुरत मुरत नैन जुरि नीठि।

    डौंड़ी दै गुन रावरे कहति कनौड़ी डीठि।।185।।

    मरकत-भाजन-सलिल-गत इंदु-कला कैं बेख।

    झींन झगा मैं झलमलै स्यामगात-नख-रेख।।186।।

    बालमु बारैं सौति कैं सुनि परनारि-बिहार।

    भो रसु अनरसु रिस रली रीझ खीझ इक बार।।187।।

    दुरत कुच बिच कंचुकी चुपरी सारी सेत।

    कबि-आंकनु के अरथ लौं प्रगटि दिखाई देत।।188।।

    भई जु छबि तन बसन मिलि बरनि सकैं सु बैन।

    आंग-ओप आंगी दुरी आंगी आंग दुरै न।।189।।

    सोनजुही सी जगमगति अँग अँग जोबन-जोति।

    सुरँग कसूंभी कंचुकी दुरँगा देह-दुति होति।।190।।

    बड़े हूजै गुननु बिनु बिरद-बड़ाई पाइ।

    कहत धतूरे सौं कनकु गहनौ गढ़यौ जाइ।।191।।

    कनकु कनक तैं सौगुनौ मादकता अधिकाइ।

    उहिँ खाएं बौराइ इहिँ पाएं हीं बौराइ।।192।।

    डीठिबरन बाधी अटनु चढ़ि धावत डरात।

    इतहिँ उतहिँ चित दुहुनु के नट लौ आवत जात।।193।।

    झटकि चढ़ति उतरति अटा नैंक थाकति देह।

    भई रहति नट कौ बटा अटकी नागर-नेह।।194।।

    लोभ लगे हरि-रूप के करी सांटि जुरि जाइ।

    हौं इन बेची बीच हीं लोइन बड़ी बलाइ।।195।।

    चिलक चिकनई चटक सौं लफति खटक लौं आइ।

    नारि सलोनी सांवरी नागिनि लौं डसि डाइ।।196।।

    तो रस रांच्यौ आन बस कहौ कुटिल-मति कूर।

    जीभ निबौरी क्यौं लगै बौरी चाखि अँगूर।।197।।

    जुरे दुहुनु के दृग झमकि रुके झानैं चीर।

    हलुकी फौज हरौल ज्यौं परै गोल पर भीर।।198।।

    केसर केसरि-कुसुम के रहे अंग लपटाइ।

    लगे जानि नख अनखुली कत बोलति अनखाइ।।199।।

    दृग मिहचत मृग-लोचनी भरयौ उलटि भुज बाथ।

    जानि गई तिय नाथ के हाथ परस ही हाथ।।200।।

    तजि तीरथ हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुराग।

    जिहिँ ब्रज-केलि-निकुंज मग पग पग होतु प्रयागु।।201।।

    खिन खिन मैं खटकति सु हिय खरी भीर मैं जात।

    कहि जु चली अनहीं चितै ओठनु ही बिच बात।।202।।

    अजौं आए सहज रँग बिरह-दूबरैं गात।

    अब हीं कहा चलाइयति ललन चलन की बात।।203।।

    अपनैं कर गुहि आपु हठि हिय पहराई लाल।

    नौल सिरी औरै चढ़ी बौलसिरी की माल।।204।।

    नई लगनि कुल की सकुच बिकल भई अकुलाइ।

    दुहूं ओर ऐची फिरति फिरकी लौं दिनु जाइ।।205।।

    इत तैं उत उत तैं इतै छिनु कहूं ठहराति।

    जक परति चकरी भई फिरि आवति फिरि जाति।।206।।

    निसि अँधियारी नील पटु पहिरि चली पिय-गेह।

    कहौ दुराई क्यों दुरै दीप-सिखा सी देह।।207।।

    रह्यौ ढीठु ढाढ़सु गहैं ससहरि गयौ सूरु।

    मुरयौ मनु मुरवानु चभि भौ चूरनु चपि चुरु।।208।।

    सोहत अँगुठा पाइ कै अनवटु चरयौ जराइ।

    जीत्यौ तरिवन-दुति सु ढरि परयौ तरनि मनु पाइ।।209।।

    जंघ जुगुल लोइन निरे करे मनौ बिधि मैन।

    केलि-तरुनु दुख दैन केलि तरुन-सुख-दैन।।210।।

    रही पकरि पाटी सु रिस भरे भौंह चितु नैन।

    लखि सपनैं तिय आनरत जगतहु लगत हियैं न।।211।।

    किय हाइलु चित-चाइ लगि बजि पाइल तुज पाइ।

    पुनि सुनि सुनि मुँह-मधुर-धुनि क्यौं लालु ललचाइ।।212।।

    लीनैं हूं साहस सहसु कीनैं जतन हजारु।

    लोइन लोइन-सिंधउ तन पैरि पावत पारु।।213।।

    पट की ढिग कत ठापियति सोभित सुभग सुबेख।

    हद-रद-छद छबि देति यह सद-रद-छद की रेख।।214।।

    नाह गरजि नाहर-गरज बोलु सुनायौ टेरि।

    फँसी फौज मैं बंदि-बिच हँसी सबनु तनु हेरि।।215।।

    बाल-बेलि सूखी सुखद इहिँ रूखी रुख-घाम।

    फेरि हडहडी कीजियै सुरस सीचि घनस्याम।।216।।

    औंधाई सीसी सुलखि बिरह-बरनि बिललात।

    बिच ही सूखि गुलाबु गौ छीटौ छुई गात।।217।।

    तजी संक सकुचति चित बोलत बाकु कुबाकु।

    दिन छिनदा छाकी रहति छुटतु छिनु छबि-छाकु।।218।।

    फिरि फिरि बूझति कहि कहा कह्यौं सांवरे गात।

    कहा करत देखे कहां अली चली क्यौ बात।।219।।

    नव नागरि-तन-मुलुकु लहि जोबन-आमिर-जौर।

    घटि बढ़ि तैं बढ़ि घटि रकम करीं और की और।।220।।

    कीजै चित सोई तरे जिहिँ पतितनु के साथ।

    मेरे गुन-औगुन-गगनु गनौ गोपीनाथ।।221।।

    मृगनैनी दृग की फरक उर-उछाह तन-फूल।

    बिन हीं पिय-आगम उमगि पलटन लगी दुकूल।।222।।

    रहे बरोठे मैं मिलत पिउ प्राननु के ईसु।

    आवत आवत की भई बिधि की घरी घरी सु।।223।।

    रबि बंदौं कर जोरि सुनत स्याम के बैन।

    भए हँसौंहै सबनु के अति अनखौंहैं नैन।।224।।

    हौं हीं बौरी बिरह-बस कै बौरौ सबु गाउँ।

    कहा जानि कहत हैं ससिहिँ सीतकर नाउँ।।225।।

    अनी बड़ी उमड़ी लखैं असि बाहक भट भूप।

    मंगलु करि मान्यौ हियैं भो मुँहु मंगलु रूप।।226।।

    सोवत जागत सुपन-बस रस रिस चैन कुचैन।

    सुरति स्यामघन की सु रति बिसरैं हूं बिसरै न।।227।।

    संगति सुमति पावहीं परे कुसति कैं धंध।

    राखौ मेलि कपूर मैं हींग होइ सुगंध।।228।।

    बड़े कहावत आप सौं गरुवे गोपीनाथ।

    तौ बदिहौं जौ राखिहौ दाथनु लखि मनु हात।।229।।

    कौड़ा आंसू-बंद कसि सांकर बरुनी सजल।

    कीने बदन निमूंद दृग-मलिंग डारे रहत।।230।।

    उयौ सरद-राका-ससी करति क्यौं चित चेतु।

    मनौ मदन छितिपाल कौ छांहगीरु छबि देतु।।231।।

    ढरे ढार तेहीं ढरत दूजैं ढार ढरैं न।

    क्यौंहूं आनन आन सौं नैना लागत नै न।।232।।

    सोवत लखि मन मानु धरि ढिग सोयौ प्यौ आइ।

    रही सुपन की मिलनि मिलि तिय हिय सौं लपटाइ।।233।।

    जोन्ह नहीं यह तमु बहै किए जु जगत निकेतु।

    होत उदै ससि के भयौ मानहु ससहरि सेतु।।234।।

    जात जात बितु होतु है ज्यौं जिय मैं संतोषु।

    होत होत जौ होइ तौ होइ घरी मैं मोषु।।235।।

    तन भूषन अंजन दृगनु पगनु महावर-रंग।

    नहिँ सोभा कौं साजियतु कहिबैं ही कौ अंग।।236।।

    पाइ तरुनि-कुच उच्च पदु चिरम ठग्यौ सबु गाउँ।

    छुटैं ठौरु रहिहै वहै जु हो मोलु छबि नाउँ।।237।।

    नित प्रति एकत हीं रहत बैस बरन मन एक।

    चहियत जुगल किसोर लखि लोचन जुगल अनेक।।238।।

    मन धरति मेरौ कह्यौ तूं आपनैं सयान।

    अहे परनि परि प्रेम की परहथ पारि प्रान।।239।।

    नख-रेखा सोहैं नई अलसौंहैं सब गात।

    सौंहैं होत नैन तुम सौंहैं कत खात।।240।।

    हरि कीजति बिनती यहै तुम सौं बार हजार।

    जिहिँ तिहिँ भांति डरयौ रह्यौं परयौ रहौं दरबार।।241।।

    भौंह उँचै आँचरु उलटि मौरि मोरि मुँह मोरि।

    नीठि नीठि भीतर गई दीठि दीठि सौं जोरि।।242।।

    रस की सी रुख ससिमुखी हँसि हँसि बोलत बैन।

    गूढ मानु मन क्यौं रहै बए बूढ़-रँग नैन।।243।।

    जिहिँ निदाघ-दुपहर रहै भई माघ की राति।

    तिहिँ उसीर की रावटी खरी आवटी जाति।।244।।

    रही दहेंड़ो ढिग धरी भरी मथनिया बारि।

    फेरति करि उलटी रई नई बिलोवनहारि।।245।।

    देवर-फूल-हने जु सु सु उठे हरषिं अँग फूलि।

    हँसी करति औषधि सखिनु देह-ददोरनु भूलि।।246।।

    फूले फदकत लै फरी पल कटाच्छ करवार।

    करत बचावत बिय-नयन-पाइक घाइ हजार।।247।।

    पहुला-हारु हियैं लसै सन की बेदी भाल।

    राखति खेत खरे खरे खरे खरे उरोजनु बाल।।248।।

    लई सौंह सी सुनन की तजि मुरली धुनि आन।

    किए रहति नित राति दिनु कानन लागे कान।।249।।

    तूं मति मानै मुकतई कियैं कपट चित कोटि।

    जौ गुनही तौ राखियै आंखिनु मांझ अगोटि।।250।।

    गिरि तैं ऊंचे रसिक-मन बूड़े जहां हजारु।

    वहै सदा पसु नरनु कौं प्रेम-पयोधि पगारु।।251।।

    भावकु उभरौंहौं भयौं कछुकु परयो भरुआइ।

    सीप-हार कैं मिसि हियौ निसि दिन हेरत जाइ।।252।।

    गली अँधेरी सांकरी भौ भटभेरा आनि।

    परे पिछाने परसपर दोऊ परस पिछानि।।253।।

    कहि पठई जिय-भावती पिय आवन की बात।

    फूली आंगन मैं फिरै अंग अंग समात।।254।।

    जिन दिन देखे वे कुसुम गई सु बीति बहार।

    अब अलि रही गुलाब मैं अपत कँटीली डार।।255।।

    मैं बरजी कै बार तू इत कित लेति करौट।

    पँखुरी लगैं गुलाब की परिहै गात खरौट।।256।।

    नीचीयै नीची निपट दीठि कुही लौं दौरि।

    उठि ऊंचैं नीचौ दयौ मनु कुलिगु झपि झौरि।।257।।

    सूर उदित हूं मुदित मन मुखु सुखमा की ओर।

    चितै रहत चहुँ ओर तैं निहचल चखनु चकोर।।258।।

    स्वेद-सलिलु रोमांच-कुसु गहि दुलही अरु नाथ।

    दियौ हियौ सँग हाथ कैं हथलेयैं हीं हाथ।।256।।

    दच्छिन पिय ह्वै बाम-बस बिसराईं तिय आन।

    एकै बाषरि कैं बिरह लागी बरष बिहान।।260।।

    मोहूं दीजै मोषु ज्यौं अनेक अधमनु दियौ।

    जौ बांधैं ही तोषु तौ बांधौ अपनैं गुननु।।261।।

    चितु तरसतु मिलत बनतु बसि परोस कैं बास।

    छाती फाटी जाति सुनि टाटी-ओट उसास।।262।।

    जालरंध्र-मग अँगनु कौ कछु उजास सौ पाइ।

    पीठि दिऐ जगत्यौ रह्यौ डीठि झरोखैं लाइ।।263।।

    परतिय-दोषु पुरान सुनि लखि मुलकी सुख दानि।

    कसु करि राखी मिश्र हूं मुँह-आई मुसकानि।।264।।

    सहित सनेह सकोच सुख स्वेद कंप मुसकानि।

    प्रान पानि करि आपनैं पान धरे मो पानि।।265।।

    सीरैं जतननु सिसिर रितु सहि बिरहिनि-तन-तापु।

    बसिवे कौं ग्रीषम दिननु परवो परोसिनि पापु।।266।।

    सोहतु संगु समान सौं यहै कहै सबु लोगु।

    पान-पीक ओठनु बनै काजर नैननु जोगु।।267।।

    तूं रहि हौं हीं सखि लखौं चढ़ि अटा बलि बाल।

    सबहिनु बिनु हीं ससि-उदै दीजतु अरघु अकाल।।268।।

    दियौ अरघु नीचैं चलौ संकटु भानै जाइ।

    सुचिती ह्वै औरो सबै ससिहिँ बिलोकैं आइ।।269।।

    ललित स्याम लीला ललन बढ़ी चिबुक छबि दून।

    मधु छाक्यौ मधुकरु परयौ मनौ गुलाब प्रसून।।270।।

    सबै सुहाएई लगैं बसैं सुहाऐं ठाम।

    गोरैं मुँह बेंदी लसैं अरुन पीत सित स्याम।।271।।

    भए बटाऊ नेहु तजि बादि बकति बेकाज।

    अब अलि देत उराहनौ अति उपजति उर लाज।।272।।

    मानु करत बरजति हौं उलटि दिवावति सौंह।

    करी रिसौंहीं जाहिँगी सहज हँसौंहीं भौंह।।273।।

    तिय तिथि तरुन किसोर बय पुन्यकाल-सम दोनु।

    काहूं पुन्यनु पाइयतु बैस संधि संक्रोनु।।274।।

    गनती गनिबे तैं रहै छत हूं अछत समान।

    अलि अब तिथि औम लौं परे रहौ तन प्रान।।275।।

    सबै हँसत करतार दै नागरता कैं नावँ।

    गयौ गरबु गुन कौ सरबु गऐं गँवारैं गावँ।।276।।

    जाति मरी बिछरी घरी जल सफरी की रीति।

    खिन खिन होति खरी खरी अरी जरी यह प्रीति।।277।।

    पिय-प्राननु की पाहरू करति जतन अति आपु।

    जाकी दुसह दसा परयौ सौतिनिहूं संतापु।।278।।

    अहे कहै कहा कह्यौ तोसौं नंदकिसोर।

    बड़बोली बलि होति कत बड़े दृगनु कैं जोर।।279।।

    दियौ जु पिय लखि चखनु मैं खेलत फाग-खियालु।

    बाढ़त हूं अति पीर सु काढ़त बनतु गुलालु।।280।।

    मैं तपाइ त्रयताप सौं राख्यौ हियौ हमामु।

    मति कबहुँक आऐं यहां पुलकि पसीजै स्यामु।।281।।

    बहकि बड़ाई आपनी कत रांचत मति-भूल।

    बिनु मधु मधुकर कैं हियैं गडै गुड़हर-फूल।।282।।

    आड़े दै आले बसन जाड़े हूं की राति।

    साहसु ककै सनेह-बस सखी सबै ढिग जाति।।283।।

    सब अँग करि राखी सुघर नाइक नेह सिखाइ।

    रसजुत लेति अनंत गति पुतरी पातुर-राइ।।284।।

    सुनत पथिक-मुँह माह-निसि चलति लुवै उहि गाम।

    बिनु बूझैं बिनु हीं कहैं जियति बिचारी बाम।।285।।

    अनत बसे निसि की रिसनु उर बरि रही बिसेखि।

    तऊ लाज आई झुकत खरे लजौहैं देखि।।286।।

    सुरँगु महावरु सौति-पग निरखि रही अनखाइ।

    पिय-अँगुरिनु लाली लखै खरी उठी लगि लाइ।।287।।

    मानहु मुँह-दिखरावनी दुलहिहिँ करि अनुरागु।

    सासु सदनु मनु ललन हूं सौतिनु दियौ सुहागु।।288।।

    कत सकुचत निधरक फिरौ रतियौ खोरि तुम्हैं न।

    कहा करौ जौ जाइ लगैं लगौंहैं नैन।।289।।

    आपु दियौ मनु फेरि लै पलटैं दीनी पीठि।

    कौन चाल यह रावरी लाल लुकावत डीठि।।290।।

    गोपिन सँग निसि सरद की रमत रसिक रस-रास।

    लहाछेह अति गतिनु की सबनु लखे सब-पास।।291।।

    स्याम-सुरति करि राधिका तकति तरनिजा-तीरु।

    अँसुवनु करति तरौस कौ खिनकु खरौंहौं नीरु।।292।।

    गोपिनु कैं अँसुवनु भरी सदा असोस अपार।

    डगर डगर नै ह्वै रही बगर बगर कैं बार।।293।।

    दुचितैं चित हलति चलति हँसति झुकति बिचारि।

    लखत चित्र पिउ लखि चितै रही चित्र लौं नारि।।294।।

    कन दैवौ सौंप्यौ ससुर बहू थुरहथी जानि।

    रूप-रहचटैं लगि लग्यौ मांगन सबु जगु आनि।।295।।

    निरखि नबोढ़ा नारि तन छुटत लरिकई लेस।

    भौ प्यारौ प्रीतमु तियनु मनहु चलत परदेस।।296।।

    प्रान प्रिया हिय मैं बसै नखरेखा-ससि भाल।

    भलौ दिखायौ आइ यह हरि-हर-रूप रसाल।।297।।

    तिय निय हिय जु लगी चलत पिय-नख-रेख-खरौंट।

    सूखन देत सरसई खोंटि खोंटि खत-खौंट।।298।।

    सघन कुंज घन घन-तिमिरु अधिक अँधेरी राति।

    तऊ दुरिहै स्याम वह दीप सिखा सी जाति।।299।।

    स्वारथु सुकृतु श्रमु बृथा देखि बिहंग बिचारि।

    बाज पराऐं पानि परि तूं पच्छीनु मारि।।300।।

    सीस-मुकट कटि-काछनी कर-मुरली उर-माल।

    इहिँ बानक मो मन सदा बसौ बिहारी लाल।।301।।

    भृकुटी-मटकनि पीतपट चटक लटकती चाल।

    चलचख चितवनि चोरि चितु लियौ बिहारी लाल।।302।।

    संगति-दोषु लगै सबनु कहे ति सांचे बैन।

    कुटिल बंक भ्रुव सँग बए कुटिल बंक गति नैन।।303।।

    जरी-कोर गोरैं बदन बढ़ी खरी छबि देखु।

    लसति मनौ बिजुरी किए सारद ससि परिबेखु।।304।।

    चितवनि भोरे भाइ की गोरैं मुँह मुसकानि।

    लागति लटकि अली-गरैं चित खटकति नित आनि।।305।।

    इहिँ द्वैहीं मोती सुगथ तूं नथ गरबि निसांक।

    जिहिँ परिहैं जग-दृग ग्रसति लसति हँसति सी नांक।।306।।

    हरि-छबि-जल जब तैं परे तब तैं छिनु बिछुरैं न।

    भरत ढरत बूड़त तरत रहत घरी लौं नैन।।307।।

    मार-सुमार-करी डरी मरी मरीहिँ मारि।

    सींचि गुलाब घरी घरी अरी बरीहिँ बारि।।308।।

    क्यौं हूँ सहबात लगै थाके भेद-उपाइ।

    हठ-दृढ़ गढ़-गढ़वै सु चलि लीजै सुरँग लगइ।।309।।

    तो ही को छुटि मानु गौ देखत हीं ब्रजराज।

    रही घरिक लौं मान सी मान करे की लाज।।310।।

    बिससियहि लखि नए दुरजन दुसह-सुभाइ।

    आंटैं परि प्राननु हरत काटैं लौं लगि पाइ।।311।।

    सखि सोहति गोपाल कैं उर गुंजनु की माल।

    बाहिर लसति मनौ पिए दावानल की ज्वाल।।312।।

    गहिली गरबु कीजियै समै-सुहागहिं पाइ।

    जिय की जीवनि जेठ सो माह छांह सुहाइ।।313।।

    हँसि हँसाइ उर लाइ उठि कहि रुखौंहै बैन।

    जकित थकित ह्वै तकि रहे तकत तिलौंछे नैन।।314।।

    तीज-परब सौतिनु सजे भूषन बसन सरीर।

    सबै मरगजे-मुँङ करी इहीं मरगजै चीर।।315।।

    गढ़-रचना बरुनी अलक चितवनि भौंह कमान।

    आघु बँकाई हीं चढ़ै तरुनि तुरंगम तान।।316।।

    इत आवति चलि जाति उत चली छसातक हाथ।

    चढ़ी हिंडोरै सैं रहै लगी उसासनु साथ।।317।।

    डर टरै नींद परै हरै काल-बिपाकु।

    छिनकु छाकि उछकै फिरि खरौ बिषमु छबि-छाकु।।318।।

    रमन कह्यौ हठि रमन कौं रति बिपरीत बिलास।

    चितई करि लोचन सतर सजल सरोस सहास।।319।।

    ऐंचति सी चितवनि चितै भई ओट अलसाइ।

    फिरि उझकनि कौं मृगनयनि दृगनि लगनिया लाइ।।320।।

    नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ।

    जेतौ नीचौ ह्वै चलै तेतौ ऊंचै होइ।।321।।

    भूपन-भारु सँभारिहै क्यौं इहिँ तन सुकुमार।

    सूधे पांय धर परैं सोभा हीं कैं भार।।322।।

    मुँह मिठासु दृग चीकने भौंहैं सरल सुभाइ।

    तऊ खरैं आदर खरौ खिन खिन हियौ सकाइ।।323।।

    जदपि नाहिँ नाही नहीं बदन लगी जक जाति।

    तदपि भौंह-हांसी-भरिनु हांसीयै ठहराति।।324।।

    छुटन पैयतु छिनकु बसि नेह-नगर यह चाल।

    मारयौ फिरि फिरि मारियै खूनी फिरै खुस्याल।।325।।

    चुनरी स्याम सतार नम मुँह ससि की उनहारि।

    नेह दबावतु नींद लौं निरखि निसा सी नारि।।326।।

    कहत सबै बेंदी दियैं आंकु दसगुनौ होतु।

    तिय-लिलार बेंदी दियैं अगनुत बढ़तु उदोतु।।327।।

    तर झरसी ऊपर गरी कज्जल-जल छिरकाइ।

    पिय पाती बिनहीं लिखी बांची बिरह-बलाइ।।328।।

    बिरह सुकाई देह नेहु कियौ अति डहडहौ।

    जैसैं बरसैं मेह जरै जवासौ जौ जमै।।329।।

    देखी सो जु ही फिरति सोनजुही सैं अंग।

    दुति-लपटनु पट सेत हूं करति बनौटी रंग।।330।।

    बढ़त बढ़त संपति-सलिलु मन-सरोज बढ़ि जाइ।

    घटत घटत सु फिरि घटै बरु समूल कुम्हिलाइ।।331।।

    ह्यां चलै बलि रावरी चतुराई की चाल।

    सनख हियैं खिन खिन नटत अनख बढ़ावत लाल।।332।।

    डीठि परतु समन-दुति कनकु कनक सैं गात।

    भूषन कर करकस लगत परसि पिछाने जात।।333।।

    करतु मलिन आछी छबिहिँ हरतु सहजु बिकासु।

    अंगरागु अंगनु लगै ज्यौं आरसी उसासु।।334।।

    पहिरि भूषन कनक के कहि आवत इहिँ हेत।

    दरपन के से मोरचे देह दिखाई देत।।335।।

    जदपि चवाइनु चीकनी चलति चहूं दिसि सैन।

    तऊ छाड़त दुहुनु के हँसी रसीले नैन।।336।।

    अनरस हूं रसु पाइयतु रसिक रसीली पास।

    जैसैं सांठे की कठिन गांठयौ भरी मिठासु।।337।।

    गोरी छिगुनी नखु अरुनु छला स्यामु छबि देह।

    लहत मुकति रति पलकु यह नैन त्रिबेनी सेइ।।338।।

    उर मानिक की उरबसी डटत घटतु दृग-दागु।

    छलकतु बाहिर भरि मनौ तिय-हिय कौ अनुरागु।।339।।

    सहज सेत पँचतोरिया पहिरत अति छबि होति।

    जलचादर के दीप लौं जगमगाति तन-जोति।।340।।

    कोटि जतन कोऊ करै परै प्रकृतिहिँ बीचु।

    नल-बल जलु ऊंचैं चढ़ै अंत नीच को नीचु।।341।।

    लगत सुभग सीतल किरन निसि-सुख दिन अवगाहि।

    माह ससी-भ्रम सूर-त्यौं रहति चकोरी चाहि।।342।।

    तपन-तेज तपु-ताप तपि अतुल तुलाई मांह।

    सिसिर-सीतु क्यौंहुँ कटै बिनु लपटैं तिय नांह।।343।।

    रहि सकी सब जगत मैं सिसिर-सीत कैं त्रास।

    गरम भाजि गढ़वै भई तिय-कुच अचल मवास।।344।।

    झूठे जानि संग्रहे मन मुँह निकसे बैन।

    याही तैंमानहु किए बातनु कौं बिधि नैन।।345।।

    सुघर-सौति-बस पिउ सुनत दुलहिनि दुगुन हुलास।

    लखी सखी तन दीठि करि सगरब सलज सहास।।346।।

    लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।

    भए केते जगत के चतुर चितेरे कूर।।347।।

    टुनहाई सब टोल मैं रही जु सौति कहाइ।

    सु तैं ऐचि प्यौ आपु त्यौं करी अदोखिल आइ।।348।।

    दृगनु लगत बेधत हियहिँ बिकल करत अँग आन।

    तेरे सब तैं बिषम ईछन-तीछन बान।।349।।

    पीठि दियै हीं नैंक मुरि कर घूंघट-पटु टारि।

    भरि गुलाल की मूठि सौं गई मूठि सी मारि।।350।।

    गुनी गुनी सबकैं कहैं निगुनी गुनी होतु।

    सुन्यौ कहूं तरु अरक तैं अरक समानु उदोतु।।351।।

    छुटत मुठिन सँग हीं छुटी लोक-लाज कुल-चाल।

    लगे दुहुनु इक बेर ही चल चित नैन गुलाल।।352।।

    ज्यौं ज्यौं पटु झटकति हठति हँसति नचावति नैन।

    त्यौं त्यौं निपट उदारहूं फगुवा देत बनै न।।353।।

    ज्यौं ज्यौं पावक लपट सी तिय हिय सौं लपटाति।

    त्यौं त्यौं छुही गुलाब सैं छतिया अति सियराति।।354।।

    भाल-लालवेंदी-छए छुटे बार छबि देत।

    गह्यौ राहु अति आहु करि मनु ससि सूर समेत।।355।।

    तिय कित कमनैती पढ़ी बिनु जिहि भौंह-कमान।

    चलचित-बेझैं चुकति नहिँ बंक बिलोकनि-बान।।356।।

    दुसह दुराज प्रजानु कौं क्यौं बढ़ै दुख-दंदु।

    अधिक अँधेरो जग करत मिलि मावस रबि चंदु।।357।।

    ललन-चलनु सुनि पलनु मैं अँसुवा झलके आइ।

    भई लखाइ सखिनु सौं झूठैं हीं जमुहाइ।।358।।

    कंचन-तन-धन-बरन बर रह्यो रंगु मिलि रंग।

    जानी जाति साबस हीं केसरि लाई अंग।।359।।

    खरैं अदब इठलाहटी उर उपजावति त्रासु।

    दुसह संक बिस कौ करै जैसे सींठि-मिठासु।।360।।

    तौ लगु या मन-सदन मैं हरि आवैं किहिं बाट।

    बिकट जटे जौ लगु निपट खुटैं कपट-कपाट।।361।।

    है कपूर मनिमय रही मिलि तन-दुति मुकतालि।

    छिन छिन खरी बिचच्छिनौ लखति छ्वाइ तिनु आलि।।362।।

    दृग उरझत टूटत कुटुम जुरत चतुर-चित प्रीति।

    परति गांठि दुरजन हियैं दई नई यह रीति।।363।।

    नहिं नचाइ चितवति दृगनु नहिँ बोलति मुसकाइ।

    ज्यौं ज्यौं रूखी रुख करति त्यौं त्यौं चितु चिकनाइ।।364।।

    वैसीयै जानी परति झगा ऊजरे माहँ।

    मृगनैनी लपटत जु यह बेनी उपटी बाहँ।।365।।

    प्यासे दुपहर जेठ के फिरे सबै जलु सोधि।

    मरुधर पाइ मतीरु हीं मारू कहत पयोधि।।366।।

    बिषम बृषादित की तृषा जिए मतीरनु सोधि।

    अमित अपार अगाध जलु मारौ मूड़ पयोधि।।367।।

    निपट लजीली नवल तिय बहकि बारुनी सेइ।

    त्यौं त्यौं अति मीठी लगति ज्यौं ज्यौं ढीठयौ देइ।।368।।

    सरस कुसुम मँडरातु अलि झुकि झपटि लपटातु।

    दरसत अति सुकुमारु तनु परसत मन पत्यातु।।369।।

    निरदय नेहु नयौ निरखि भयौ जगतु भय भीतु।

    यह कहूं अब लौं सुनी मरि मारियै जु मीतु।।370।।

    भजन कह्यौ तातैं भज्यौ भज्यौ एकौ बार।

    दूरि भजन जातैं कह्यौ सो तें भज्यौ गँवार।।371।।

    नैन लगै तिहिँ लगनि जु छुटैं छुटैं हूं प्रान।

    काम आवत एक हूं तेरे सैक सयान।।372।।

    उड़ति गुड़ी लखि ललन की अँगना अँगना माहँ।

    बौरी लौं दौरी फिरति छुवति छबीली छाहँ।।373।।

    ऊंचै चितै सराहियतु गिरह कबूतरु लेतु।

    झलकित दृग मुलकित बदनु तनु पुलकित किहिं हेतु।।374।।

    लागत कुटिल कटाच्छ-सर क्यौं होहिँ बेहाल।

    कढ़त जि हियहिँ दुसाल करि तऊ रहत नटसाल।।375।।

    जनमु जलधि पानिपु बिमल भौ जग आघु अपारु।

    रहै गुनी ह्वै गर परयौ भलैं मुकता हारु।।376।।

    गहै नेकौ गुन गरबु हँसौ सबै संसारु।

    कुच उच पद लालच रहै गरैं परैं हूं हारि।।377।।

    तज्यौ आंच अब बिरह की रह्यो प्रेम-रस भीजि।

    नैननु कैं मग जलु बहै हियौ पसीजि पसीजि।।378।।

    छला परोसिन हाथ तैं छलु करि लियौ पिछानि।

    पियहिँ दिखायौ लखि बिलखि रिस-सूचक मुसकानि।।379।।

    हठि-हितु करि प्रीतम-लियौ कियौ जु सौति सिँगारु।

    अपनैं कर मोतिनु गुह्यो भयो हरा हर-हारु।।380।।

    बसै बुराई जासु तन ताही कौ सनमानु।

    भलौ भलौ कहि छोड़ियै खोटैं ग्रह जपु दानु।।381।।

    वै ठाढ़े उमदाहु उत जल बुझै बड़वागि।

    जाही सौं लाग्यौ हियौ ताही कैं हिय लागि।।382।।

    ढीठि परोसिनि ईठि ह्वै कहे जु गहे सयानु।

    सबै सँदेसे कहि कह्यौ मुसकाहट मैं मानु।।383।।

    छिनकु चलति ठठुकति छिनकु भुज प्रीतम-गल डारि।

    चढ़ी अटा देखति घटा बिज्जु-छटा सी नारि।।384।।

    धनि यह द्वैज जहां लख्यौ तज्यौ दृगनु दुख-दंदु।

    तुम भागनु पूरब उयौ अहो अपूरबु चंदु।।385।।

    लरिका लेवे कैं मिसनु लंगरु मो ढिग आइ।

    गयौ अनाचक आंगुरी छाती छैलु छुवाइ।।386।।

    ढीठयौ दै बोलति हँसति पोढ़-बिलास अपोढ़।

    त्यौं त्यौं चलत पिय-नयन छकए छकी नबोढ़।।387।।

    रनित भृंग-घंटावली झरित दान मधु-नीरु।

    मंद मंद आवतु चल्यौ कुंजरु कुंज-समीरु।।388।।

    रही रुकी क्यौं हूं सु चलि आधिक राति पधारि।

    हरति तापु सब द्यौस कौ उर लगि यारि बयारि।।389।।

    चुवति स्वेद मकरंद-कन तरु-तरु-तर बिरमाइ।

    आवतु दच्छिन देस तैं थख्यौ बटोही बाइ।।390।।

    पतवारी माला पकरि और कछू उपाउ।

    तरि संसार-पयोधि कौं हरि-नावैं करि नाउ।।391।।

    लपटी पुहुप-पराग-पट सनी स्वेद मकरंद।

    आवति नारि नबोढ़ लौं सुखद बायु गति मंद।।392।।

    ललन सलोने अरु रहे अति सनेह सौं पागि।

    तनक कचाई देत दुख सूरन लौं मुँह लागि।।393।।

    करु डरु सबु जगु कहतु कत बिनु काज लजात।

    सौंहैं कीजै नैन जौ सांची सौंहैं खात।।394।।

    रहिहैं चंचल प्रान कहि कौन की अगोट।

    ललन चलन की चित धरी कल पलनु की ओट।।395।।

    जौं चाहत चटक घटै मैलौ होइ मित्त।

    रज राजसु छुवाइ तौ नेह-चीकनौं चित्त।।396।।

    कोरि जतन कीजै तऊ नागर-नेहु दुरै न।

    कहैं देत चितु चीकनौ नई रुखाई नैन।।397।।

    लाल तुम्हारे रूप की कहौ रीति यह कौन।

    जासौं लागत पलकु दृग लागत पलक पलौ न।।398।।

    कालबूतदूती बिना जुरै और उपाइ।

    फिरि ताकैं टारैं बनै पाकैं प्रेम-लदाइ।।399।।

    रह्यौ ऐंचि अंतु लहै अवधि-दुसासनु बीरु।

    आली बाढ़तु बिरहु ज्यौं पंचाली कौ चीरु।।400।।

    यह बरिया नहिँ और की तूं करिया वह सोधि।

    पाहन-नाव चढ़ाइ जिहिँ कीने पार पयोधि।।401।।

    पावक-झर तैं मेह-झर दाहक दुसह बिसेखि।

    दहै देह वाकैं परस याहि दृगनु हीं देखि।।402।।

    चलित ललित श्रम-स्वेदकन कलित अरुन मुख तैं न।

    बन-बिहार थाकी तरुनि खरे थकाए नैन।।403।।

    कुढँगु कोपु तजि रँग-रली करतिँ जुबति जग जोइ।

    पावस गूढ़ बात यह बूढ़नु हूं रँगु होइ।।404।।

    जक धरत हरि हिय धरैं नाजुक कमला बाल।

    भजत भार-भय-भीत ह्वै घनु चंदनु बनमाल।।405।।

    नासा मोरि नचाइ जे करी कका की सौंह।

    कांटै सी कसकैं ति हिय गड़ी कँटीली भौंह।।406।।

    क्यों बसियै क्यौं निबहियै नीति नह-पुर नांहि।

    लगालगी लोइन करैं नाहक मन बँधि जांहि।।407।।

    ललन-चलनु सुनि चुपु रही बोली आपु ईठि।

    राख्यौ गहि गाढ़ैं गरैं मनौ गलगली डीठि।।408।।

    अपनी गरजनु बोलियतु कहा निहोरौ तोहिँ।

    तू प्यारौ मो जीय कौं मो ज्यौ प्यारौ मोहिं।।409।।

    रह्यौ चकितु चहुँघा चितै चितु मेरौ मति भूलि।

    सूर उयैं आए रही दृगनु सांझ सी फूलि।।410।।

    अति अगाधु अति औथरौ नदी कूपु सरु बाइ।

    सो ताकौ सागरु जहां जाकी-प्यास बुझाइ।।411।।

    कपट सतर भौहैं करीं मुख अनखौंहैं बैन।

    सहज हसौहैं जानि कै सौंहैं करति नैन।।412।।

    मानहु बिधि तन-अच्छ छबि स्वच्छ राखिबैं काज।

    दृग-पग-पोंछन कौं करे भूषन पायंदाज।।413।।

    बिरह-बिथा-जल-परस-बिन बसियतु मो-मन-ताल।

    कछु जानत जल-थंभ-बिधि दुर्जोधन लौं लाल।।414।।

    रुख रूखी मिस-रोष मुख कहति रुखौंहैं बैन।

    रूखे कैसैं होत नेह चीकने नैन।।415।।

    पति-रितु-औगुन-गुन बढ़तु मानु माह कौ सीतु।

    जातु कठिन ह्वै अति मृदौ रवनी-मनु नवनीतु।।416।।

    त्यौं त्यौं प्यासेई रहत ज्यौं ज्यौं पियत अघाइ।

    सगुन सलोने रूप की जु चख-तृषा बुझाइ।।417।।

    अरुन-बरन तरुनी-चरन-अँगुरी अति सुकुमार।

    चुवत सुरँगु रँगु सी मनौ चपि बिछियनु कैं भार।।418।।

    मोर-मुकुट की चंद्रिकनु यौं राजत नँदनंद।

    मनु ससिरसेखर की अकस किय सेखर सतचंद।।419।।

    अधर धरत हरि कैं परत ओठ डीठि पट जोति।

    हरित बांस की बांसुरी इंद्रधनुष-रँग होति।।420।।

    तौ अनेक औगुन-भरिहिँ चाहै याहि बलाइ।

    जौ पति संपति हूं बिना जदुपति राखे जाइ।।421।।

    प्रीतम दृग मिहचत प्रिया पानि-परस-सुखु पाइ।

    जानि पिछानि अजान लौं नैंकु होति जनाइ।।422।।

    देखौं जागत वैसियै सांकर लगी कपाट।

    कित ह्वै आवत जात भजि को जानै किहिँ बाट।।423।।

    करु उठाइ घूंघटु करत उझरत पट-गुझरौट।

    सुख-मोटै लूटीं ललन लखि ललना की लौट।।424।।

    करौ कुवत जगु कुटिलता तजौं दीनदयाल।

    दुखी होंहुगे सरल हिय बसत त्रिभंगी लाल।।425।।

    निज करनी सकुचेहिँ कत सकुचावत इहिँ चाल।

    मोहूं से नित-बिमुख-त्यौ सनमुख रहि गोपाल।।426।।

    मोहिँ तुम्हैं बाढ़ी बहस को जीतै जदुराज।

    अपनैं अपनैं बिरद की दुहूं निबाहन लाज।।427।।

    दूरि भजत प्रभु पीठि दै गुन बिस्तारन काल।

    प्रगटत निर्गुन निकट रहि चंग-रंग भूपाल।।428।।

    कहै यहै स्रुति सुम्रित्यौ यहै सयाने लोग।

    तीन दबावत निसकहीं पातक राजा रोग।।429।।

    जो सिर धरि महिमा मही लहियति राजा राइ।

    प्रगटत जड़ता अपनियै सु मुकटु पहिरत पाइ।।430।।

    को कहि सकै बड़ेनु सौं लखै बड़ीयौ भूल।

    दीने दई गुलाब की इन डारनु वे फूल।।431।।

    समै समै सुंदर सबै रूपु कुरूपु कोइ।

    मन की रुचि जेती जितै तित तेती रुचि होइ।।432।।

    या भव-पारावार कौं उलँघि पार को जाइ।

    तिय-छबि-छाया ग्राहिनी ग्रहै बीचहीं आइ।।433।।

    दिन दस आदरु पाइकै करि लै आपु बखानु।

    जौ लगि काग सराधपखु तौ लगि तौ सनमानु।।434।।

    मरतु प्यास पिँजरा-परयौ सुआ समै कैं फेर।

    आदरु दै दै बोलियतु बाइसु बलि की बेरे।।435।।

    वेई कर ब्यौरनि वहै ब्यौरौ कौन बिचार।

    जिनहीं उरझयौ मो हियौ तिनहीं सुरझै बार।।436।।

    इहीं आस अटक्यौ रहतु अलि गुलाब कैं मूल।

    ह्वैहैं फेरि बसंत ऋतु इन डारनु वे फूल।।437।।

    वे इन इहां नागर बढ़ी जिन आदर तो आब।

    फूल्यो अनफूल्यो भयौ गवँई गावँ गुलाब।।438।।

    चल्यो जाइ ह्यां को करै हाथिनु कौ ब्यापार।

    नहिँ जानतु इहिँ पुर बसैं धोबी ओड़ कुँभार।।439।।

    खरी लसति गोरैं गरै धँसति पान की पीक।

    मनौ गुलीबँद-लाल की लाल लाल दुति-लीक।।440।।

    पाइल पाइ लगी रहै लगौ अमौलिक लाल।

    भोडर हूं की भासिहै बेंदी भामिनि-भाल।।441।।

    कुटिल अलक छुटि परत मुख बढ़िगौ इतौ उदोतु।

    बंक बकारी देत ज्यौं दामु रुपैया होतु।।442।।

    रहि सक्यौ कसु करि रह्यौ बस करि लीनौ मार।

    भेदि दुसार कियौ हियौ तन-दुति भेदै सार।।443।।

    खल-बढ़ई बलु करि थके कटै कुबत-कुठार।

    आलबाल उर झालरी खरी प्रेम-तुर-डार।।444।।

    स्यौं बिजुरी मनु मेह आनि इहां बिरहा धरे।

    आठौ जाम अछेह दृग जु बरत बरसत रहत।।445।।

    कत बेकाज चलाइयति चतुराई की चाल।

    कहे देति यह रावरे सब गुन निरगुन माल।।446।।

    उनकौ हितु उनहीं बनै कोऊ करौ अनेकु।

    फिरतु काक गोलकु भयौ दुहूं देह ज्यौं एकु।।447।।

    बड़े बड़े छबि-छाक छकि छिगुनी-छोर छुटैं न।

    रहै सुरँग रँग रँगि उहीं नह-दी महदी नैन।।448।।

    बाढ़तु तो उर उरज-भरु भरि तरुनई-बिकास।

    बोझनु सौतिनु कैं हियैं आवति रूंधि उसास।।449।।

    अलि इन लोइन-सरनु कौ खरौ बिषम संचारु।

    लगैं लगाऐं एक से दुहूंनु करत सुमारु।।450।।

    मूड़ चढ़ाऐंऊ रहै परयौ पीठि कच-भारु।

    रहै गहैं परि राखिबौ तऊ हियैं पर हारु।।451।।

    करतु जातु जेती कटनि बढ़ि रस-सरिता-स्रोतु।

    आलबाल उर प्रेम-तरु तितौ तितौ दृढ़ु होतु।।452।।

    राति द्यौस हौंसै रहै मानु ठिकु ठहराइ।

    जेतौ आगुनु ढूँढ़ियै गुनै हाथ परि जाइ।।453।।

    मनु मनावन कौं करै देतु रुठाइ रुठाइ।

    कौतुक-लाग्यौ प्यौ प्रिया-खिझहूं रिझवति जाइ।।454।।

    बिरह-बिपति-दिनु परत हीं तजे सुखनु सब अंग।

    रहि अब लौं अब दुखौ भए चलाचलै जिय-संग।।455।।

    नयैं बिरह बढ़ती बिथा खरी बिकल जिय बाल।

    बिलखी देखि परोसिन्यौ हरखि हँसी तिहिं काल।।456।।

    छतौ नेहु कागर हियैं भई लखाइ टांकु।

    बिरह-तचैं उघरयौ सु अब सेंहुड़ कैसो आंकु।।457।।

    फूलीफाली फूल सो फिरति जु बिमल-बिकास।

    भोर तरैयां होहु ते चलत तोहिँ पिय-पास।।458।।

    अरी खरी सटपट परी बिधु आधैं मग हेरि।

    संग-लगैं मधुपनु लई भागनु गली अँधेरि।।459।।

    चलतु घैरु घर घऱ तऊ घरी घर ठहराइ।

    समुझि उहीं घर कौं चलै भूलि उहीं घर जाइ।।460।।

    इक भीजैं चहलैं परैं बूड़ैं बहैं हजार।

    किते औगुन जग करै बै-नै चढ़ती बार।।461।।

    गावैं ठाढ़ैं कुचनु ठिलि पिय-हिय को ठहराइ।

    उकसौंहैं हीं तौ हियैं दई सबै उकसाइ।।462।।

    दीप-उजेरैं हूं पतिहिँ हरत बसनु रति-काज।

    रही लपटि छबि की छनु नैंकौ छुटी लाज।।463।।

    लखि दारत पिय-कर-कटकु बास-छुड़ावन-काज।

    बरुनी-बन गाढ़ै दृगनु रही गुढ़ौ करि लाज।।464।।

    सकुचि सुरत-आरंभ हीं बिछुरी लाज लजाइ।

    ढरकि ढार ढुरि ढिग भई ढीठि ढिठाई आइ।।465।।

    सकुचि सरकि पिय-निकट तैं मुलकि कछुक तनु तोरि।

    कर आंचर की ओट करि जमुहानी मुँहु मोरि।।466।।

    देह लग्यौ ढिग गेहपति तऊ नेहु निरबाहि।

    नीची अँखियनु हों इतै गई कनखियनु चाहि।।467।।

    मारयौ मनुहारिनु भरी गारवौ खरी मिठाहिँ।

    वाकौ अति अनखाहटौ मुसकाहट बिनु नाहिँ।।468।।

    नाचि अचानक ही उठे बिनु पावस बन मोर।

    जानति हौं नंदित करी यह दिसि नंद-किसोर।।469।।

    मैं यह तोहीं मैं लखी भगति अपूरब बाल।

    लहि प्रसाद-माला जु भौ तनु कदंब की माल।।470।।

    जाकैं एकाएक हूं जग ब्यौसाइ कोइ।

    सो निदाघ फूलै फरै आकु डहडहौ होइ।।471।।

    बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।

    सौंह करैं भौंहनु हँसै दैन कहैं नटि जाइ।।472।।

    रही लटू ह्वै लाल हौं लखि वह बाल अनूप।

    कितौ मिठास दयौ दई इतै सलोनै रूप।।473।।

    नहिँ पावसु ऋतुराजु यह तजि तरवर चित-भूल।

    अपतु भऐं बिनु पाइहै क्यौं नव दल फल फूल।।474।।

    बन बाटनु पिक बटपरा लखि बिरहिनु मत मैं न।

    कुहौ कुहौ कहि कहि उठैं करि करि राते नैन।।475।।

    दिसि दिसि कुसुमित देखइयत उपबन बिपिन समाज।

    मनहुँ बियोगिनु कौं कियौ सर-पंजर ऋतुराज।।476।।

    टटकी धोई धोवती चटकीली मुख-जोति।

    लसति रसोई कै बगर जगरमगर दुति होति।।477।।

    सोहति धोती सेत मैं कनक-बरन-तन बाल।

    सारद-बारद-बीजुरी-भा रद कीजित लाल।।478।।

    बहु धनु लै अहसानु कै पारौ देत सराहि।

    - बध हँसि भेद सौं रही नाह-मुँह चाहि।।479।।

    रहौ गुही बेनी लखे गुहिबे के त्यौनार।

    लागे नीर चुचान जे नीठि सुकाए बार।।480।।

    मीत नीति गलीतु ह्वै जौ धरियै धनु जोरि।

    खाऐं खरचैं जौ जुरै तौ जोरियै करोरि।।481।।

    दुरैं निघटघटयौ दियैं रावरी कुचाल।

    बिषु सी लागति है बुरी हँसी खिसी की लाल।।482।।

    छाले परिबे कैं डरनु सकै हाथ छुवाइ।

    झझकत हियैं गुलाब कैं झँवा झँवैयत पाइ।।483।।

    तिय-तरसौंहैं मुनि किए करि सरसौंहैं नेह।

    धर-परसौंहैं ह्वै रहे झर-बरसौंहैं मेह।।484।।

    घन-घेरा छुटि गौ हरषि चली चहूं दिसि राह।

    कियौ सुचैनौ आइ जगु सरद-सूर-नरनाह।।485।।

    पावस-घन-अँधियार महि रह्यौ भेदु नहिँ आनु।

    रात द्यौस जान्यौ परतु लखि चकई चकवानु।।486।।

    अरुन सरोरुह कर चरन दृग खंजन मुख चंद।

    समै आइ सुंदरि सरद काहि करति अनंद।।487।।

    नाहिंन पावक प्रबल लुवैं चलैं चहुँ पास।

    मानहु बिरह बसंत कैं ग्रीषम लेत उसास।।488।।

    कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।

    जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ।।489।।

    पग पग मग अगमन परत चरन अरुन दुति झूलि।

    ठौर ठौर लखियत उठे दुपहरिया से फूलि।।490।।

    नीच हियैं हुलसे रहैं गहे गेद के पोत।

    ज्यौं ज्यौं माथैं मारियत त्यौं त्यौं ऊंचे होत।।491।।

    ज्यौं ज्यौं बढ़ति बिभावरी त्यौं त्यौं बढ़त अनंत।

    ओक ओक सब लोक-सुख कोक-सोक हेमंत।।492।।

    रह्यौ मोहु मिलन रह्यौ यौं कहि गहैं मरोर।

    उत दै सखिहिँ उराहनौ इत चितई मो ओर।।493।।

    नहिँ हरि लौं हियरा धरौं नहिँ हर लौं अरधंग।

    एकत ही करि राखियै अंग अंग प्रति अंग।।494।।

    कियौ सबै जगु काम बस जीते जिते अजेइ।

    कुसुम-सरहिं सर धनुष कर अगहनु गहन देइ।।495।।

    छकि रसाल-सौरभ सने मधुर माधुरी-गंध।

    ठौर ठौर झौंरत झँपत भौंर-झौंर मधु-अंध।।496।।

    मिलि बिहरत बिछुरत मरत दंपति अति रति-लीन।

    नूतन बिधइ हेमंत सबु जगतु जुराफा कीन।।497।।

    पल सोहैं पगि पीक-रँग छल सोहैं सब बैन।

    बल-सौहैं कत कीजियत अलसौंहैं नैन।।498।।

    कत लपटइयतु मो गरैं सो जु ही निसि सैन।

    जिहिँ चंपक-बरनी किए गुल्लाला-रँग नैन।।499।।

    नैंक उते उठि बैठियै कहा रहे गहि गेहु।

    छुटी जाति नह-दी छिनकु महदी सूकन देहु।।500।।

    लटुवा लौं प्रभु कर गहैं निगुनी गुन लपटाइ।

    वहै गुनी-कर तैं छुटैं निगुनीयै ह्वै जाइ।।501।।

    है हिय रहति हई छई नइ जुगती जग जोइ।

    दीठिहिँ दीठइ लगै दई देह दूबरी होइ।।502।।

    जज्यौं उझकि झांपति बदनु झुकति बिहँसि सतराइ।

    तत्यौं गुलाल-मुठो झुठी झझकावत प्यौ जाइ।।503।।

    छिनकु छबीले लाल वह नहिँ जौ लगि बतराति।

    ऊख महूष पियूष की तौ लगि भूख जाति।।504।।

    अँगुरिनु उचि भरु भीति दै उलमि चितै चख लोल।

    रुचि सौं दुहूं दहूंनु के चूमे चारु कपोल।।505।।

    नागरि बिबिध बिलास तजि बसी गवेंलिनु मांहि।

    मूढनि मैं गनबी कि तू हूठयौ दै इठलांहि।।506।।

    बिथुरवौ जावकु सौति-पग निरखि हँसी गहि गांसु।

    सलज हँसौंहीं लखि लियौ आधी हँसी उसांसु।।507।।

    मो सौं मिलवति चातुरी तूं नहिं भानति भेउ।

    कहे देत यह प्रगट हों प्रगटयां पूस पसेउ।।508।।

    सौंहैं हूं हेरयौ तैं केती द्याई सौंह।

    एहो क्यौं बैठी किए ऐंठी ग्वैंठी भौंह।।509।।

    ही औरै सी ह्वै गई टरी औधि कैं नाम।

    दूजैं कै डारी खरी बौरी बौरैं आम।।510।।

    सही रँगीलैं रति-जगैं जगी पगी सुख चैन।

    अलसौंहैं सौंहैं कियैं कहैं हँसौंहैं नैन।।511।।

    कहा कुसुमु कह कौमुदी कितक आरसी जोति।

    जाकी उजराई लखैं आंखि ऊजरी होति।।512।।

    पहिरत हीं गोरैं गरैं यौं दौरी दुति लाल।

    मनौ परसि पुलकित भई बौलसिरी की माल।।513।।

    रस भिजए दोऊ दुहुनु तउ टिकि रहे टरैं न।

    छबि सौं छिरकत प्रेम-रँगु भरि पिचकारी नैन।।514।।

    कारे बरन डरावने कत आवत इहिँ गेह।

    कै वा लखी सखी लखैं लगै थरथरी देह।।515।।

    कर के मीड़े कुसुम लौं गई बिरह कुम्हिलाइ।

    सदा-समीपिनि सखिनु हूं नीठि पिछानी जाइ।।516।।

    चितवत जितवत हित हियैं कियैं तिरीछे नैन।

    भीजैं तन दोऊ कँपैं क्यौं हूं जप निबरैं न।।517।।

    कियौ जु चिबुक उठाइ के कंपित कर भरतार।

    टेढ़ीयै टेढ़ी फिरति टेढ़ैं तिलक लिलार।।518।।

    भौ यह ऐसोई समौ जहां सुखद दुखु देत।

    चैत-चांद की चांदनी डारति किए अचेत।।519।।

    कत कहियत दुखु देन कौं रचि रचि बचन अलीक।

    सबै कहाउ रह्यौ लखैं लाल महावर-लीक।।520।।

    लोपे कोपे इंद्र लौं रोपे प्रलय अकाल।

    गिरिधारी राखे सबै गो गोपी गोपाल।।521।।

    ढोरी लाई सुनन की कहि गोरी मुसुकात।

    थोरी थोरी सकुच सी भोरी भोरी बात।।522।।

    आज कछू औरै भए छए नए ठिक ठैन।

    चित के हित के चुगल नित के होहिँ नैन।।523।।

    छुटै लाज लालचौ प्यौ लखि नैहर-गेह।

    सटपटात लोचन खरे भरे सकोच सनेह।।524।।

    ह्यां तैं ह्वां ह्वां तैं इहां नेको धरति धीर।

    नसि दिन डाढ़ी सी फिरति बाढ़ी गाढ़ी पीर।।525।।

    बिरह-बिकल बिनु हीं लिखी पाती दई पठाइ।

    आंक-बिहूनीयौ सुचित सूनैं बांचत जाइ।।526।।

    समरस समर सकोच बस बिबस ठिक ठहराइ।

    फिरि फिरि उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति आइ।।527।।

    फिरत जु अटकत कटनि बिनु रसिक सु रस खियाल।

    अनत अनत नित नित हितनु चित सकुचत कत लाल।।528।।

    अरैं परै करै हियौ खरैं जरैं पर जार।

    लावति घोरि गुलाब सौं मलै मिलै घनसार।।529।।

    दोऊ चोर-मिहीचनी खेलु खेलि अघात।

    दुरत हियैं लपटाइ कै छुवत हियैं लपटात।।530।।

    मिसि हीं मिस आतप दुसह दई और बहराइ।

    चले लनन मन भावतिहिँ तन की छांह छिपाइ।।531।।

    लहलहाति तन तरुनई लचि लग लौं लकि जाइ।

    लगैं लांक लोइन भरी लोइनु लेति लगाइ।।532।।

    रही अचल सी ह्वै मनौ लिखी चित्र की आहि।

    तजैं लाज डरु लोक कौ कहौ बिलोकति काहि।।533।।

    पल चलैं जकि सी रही थकि सी रही उसास।

    अबहीं तनु रितयौ कहौ मनु पठयौ किहिँ पास।।534।।

    मैं लै दयौ लयौ सु कर छुवत छिनकि गौ नीरु।

    लाल तिहारौ अरगजा उर ह्वै लग्यौ अबीरु।।535।।

    चलौ चलैं छुटि जाइगौ हठु रावरैं सँकोच।

    खरे चढ़ाए हे ति अब आए लोचन लोच।।536।।

    कहे जु बचन बियोगिनी बिरह-बिकल बिललाइ।

    किए को अँसुवा सहित सुवा ति बोल सुनाइ।।537।।

    छिप्यौ छबीलौ मुँहु लसै नीलै अंचर-चीर।

    मनौ कलानिधइ झलमलै कालिंदी कैं नीर।।538।।

    मानु तमासौ करि रही बिबस बारुनी सेइ।

    झुकति हँसति हँसि हँसि झुकति झुकि झुकि हँसि हँसि देइ।।539।।

    सदन सदन के फिरन की सद छुटै हरि-राइ।

    रुचै तितै बिहरत फिरौ कत बिहरत उरु आइ।।540।।

    प्रलय-करन बरषन लगे जुरि जलधऱ इक साथ।

    सुरपति-गरबु हरयौ हरषि गिरिधर गिरि धरि हाथ।।541।।

    करे चाह सौं चुटकि कै खरैं उड़ौंहैं मैन।

    लाज नवाऐं तरफरत करत खूँद सी नैन।।542।।

    ज्यौं ज्यौं आवति निकट निसि त्यौं त्यौं खरी उताल।

    झमकि झमकि टहलैं करै लगी रहचटैं बाल।।543।।

    रही पैज कीनी जु मैं दीनी तुमहिँ मिलाइ।

    राखहु चंपकमाल लौं लाल हियैं लपटाइ।।544।।

    दोऊ चाह भरे कछू चाहत कह्यौ कहैं न।

    नहिँ जांचकु सुनि सूम लौं बाहिर निकसत बैन।।545।।

    सुभर भरयौ तुव गुन कननु पकयौ कपट कुचाल।

    क्यौंधौंदारयौ ज्यौं हियौ दरकतु नाहिँन लाल।।546।।

    चितु दै देखि चकोर त्यौं तीजै भजै भूख।

    चिनगी चुगै अँगार की चुगै कि चंद-मयूख।।547।।

    तुहूं कहति हौं आपु हूं समुझति सबै सयानु।

    लखि मोहनु जौ मनु रहै तौ मन राखौं मानु।।548।।

    धुरवा होहिँ अलि उठै धुवां धरनि चहुँ कोद।

    जारत आवत जगत कौं पावस प्रथम पयोद।।549।।

    नख-रुचि-चूरनु डारि कै ठगि लगाइ निज साथ।

    रह्यौ राखि हठि लै गए हथाहथी मनु हाथ।।550।।

    चलत देत आभारु सुनि उहीं परोसिहिँ नाह।

    लसी तमासे की दृगनु हांसी आंसुन मांह।।551।।

    सुरति ताल तान की उठयौ सुरु ठहराइ।

    एरी रागु बिगारि गौ बैरी बोलु सुनाइ।।552।।

    पजरयौ आगि बियोग की बह्यौ बिलोचन नीर।

    आठौं जाम हियौ रहै उड़यौ उसास समीर।।553।।

    उरु उरुझवौ चितचोर सौं गुरु गुरुजन की लाज।

    चढ़ैं हिडोरैं सैं हियैं कियैं बनै गृह-काज।।554।।

    पट सौं पोंछि परी करौ खरी भयानक भेष।

    नागिनि ह्वै लागति दृगनु नागबेलि-रँग-रेख।।555।।

    तो लखि मो मन जो लही सो गति कही जाति।

    ठोड़ी गाड़ गड़वौ तऊ उड़वौ रहै दिन राति।।556।।

    मैं लखि नारी-ज्ञानु करि राख्यौ निरधारु यह।

    वहई रोग निदानु वहै बैदु औषद वहै।।557।।।

    जो तिय तुम मन भावती राखी हियैं बसाइ।

    मोहिँ झुकावति दृगनु ह्वै वहई उझकति आइ।।558।।

    दोऊ अधिकाई भरे एकैं गौं गहराइ।

    कौनु मानवै को मनै माने मन ठहराइ।।559।।

    उर लीनै अति चटपटी सुनि मुरली-धुनि धाइ।

    हौं निकसी हुलसी सु तौ गौ हुलसी हिय लाइ।।560।।

    ब्रजबासिनु कौ उचित धनु जो धन रुचित कोइ।

    सु चित आयौ सुचितई कहौ कहां तैं होइ।।561।।

    हठु हठीली करि सकैं यह पावस ऋतु पाइ।

    आन गांठि घुटि जाइ त्यौं मान-गांठि छुटि जाइ।।562।।

    तेऊ चिरजीवी अमर निधरक फिरौं कहाइ।

    छिनु बिछुरैं जिनकी नहीं पावस आइ सिराइ।।563।।

    भेटत बनै भावतौ चितु तरसतु अति प्यार।

    धरति लगाइ लगाइ उर भूषन बसन हथ्यार।।564।।

    वाही दिन तैं ना मिटयौ मानु कलह कौं मूलु।

    भलैं पधारे पाहुने ह्वै गुड़हर कौ फूलु।।565।।

    मोहिँ लजावत निलज हुलसि मिलत सब गात।

    भानु-उदै की ओस लौं मानु जानति जात।।566।।

    तो तन अवधि-अनूप रूपु लग्यौ सब जगत कौ।

    मो दृग लागे रूप दृगनु लगी अति चटपटी।।567।।

    रहैं निगोड़े नैन डिगि गहैं चेत अचेत।

    हौं कसु कै रिस के करौं ये निसुके हँसि देत।।568।।

    मोहूं सौं बातनु लगैं लगी जीभ जिहिँ नाइ।

    सोई लै उर लाइयै लाल लागियतु पाइ।।569।।

    नावक-सर से लाइ कै तिलकु तरुनि इत तांकि।

    पावक-झर सी झमकि कै गई झरोखा झांकि।।570।।

    सुख सौं बीती सब निसा मनु सोए मिलि साथ।

    मूका मेलि गहे सु छिनु हाथ छोड़े हाथ।।571।।

    बाम बांह फरकति मिलैं जौ हरि जीवनमूरि।

    तौ तोहीं सौं भेटिहौं राखि दाहिनी दूरि।।572।।

    छुटे छुटावत जगत तैं सटकारे सुकुमार।

    मनु बांधत बेनी बँधे नील छबीले बार।।573।।

    इहिँ बसंत खरी अरी गरम सीतल बात।

    कहि क्यौं झलके देखियत पुलक पसीजे गात।।574।।

    चित पितमारक-जोगु गनि भयौ भयैं सुत सोगु।

    फिरि हुलस्यौ जिय जोइसी समुझैं जारज-जोगु।।575।।

    चमचमात चंचल नयन बिच घूंघट पट झीन।

    मानहु सुरसरिता बिमल जल उछरत जुग मीन।।576।।

    रहि मुहुँ फेरि कि हेरि इत हित समुहौ चितु नारि।

    डीठि-परस उठि पीठि के पुलके कहैं पुकारि।।577।।

    बिछुरैं जिए सकोच इहिँ बोलत बनत बैन।

    दोऊ दौरि लगे हियैं किए लजौंहैं नैन।।578।।

    मोहिँ करत कत बावरी करैं दुराउ दुरैं न।

    कहे देत रँग रीति के रँग निचुरत से नैन।।579।।

    छिपैं छिपाकर छिति छुवैं तम ससिहरि सँभारि।

    हँसति हँसति चलि ससिमुखी मुख तैं आंचरु टारि।।580।।

    अपनैं अपनैं मत लगे बादि मचावत सोरु।

    ज्यौं त्यौं सब कौं सेइबौ एकै नंद-किसोरु।।581।।

    लहि सूनैं घर करु गहत दिठादिठीं की ईठि।

    गड़ी सु चित नाहीं करति करि ललचौंहीं डीठि।।582।।

    पिय कैं ध्यान गही गही रही वही ह्वै नारि।

    आपु आपु हीं आरसी लखि रीझति रिझावरि।।583।।

    बुरौ बुराई जौ तजै तौ चितु खरौ डारातु।

    ज्यौं निकलंकु मयंकु लखि गनैंलोग उतपातु।।584।।

    मरिबे को साहसु ककै बढ़ैं बिरह की पीर।

    दौरति ह्वै समुही ससी सरसिज सुरभि समीर।।585।।

    कब की ध्यान लगी लखौं यह घरु लगिहै काहि।

    डरियतु भृंगि-कीट लौं मति वहई ह्वै जाइ।।586।।

    बिलखी लखै खरी खरी भरी अनख बैराग।

    मृगनैनी सैनन भजै लखि बेनी के दाग।।587।।

    अनियारे दीरघ दृगनु किती तरुनि समान।

    वह चिवनि औरै कछू जिहिँ बस होत सुजान।।588।।

    झुकि झुकि झपकौंहैं पलनु फिरि फिरि जुरि जमुहाइ।

    बींदि पिआगम नींद-मिसि दीं सब अली उठाइ।।589।।

    ओछे बड़े ह्वै सकैं लगौ सतर ह्वैं गैन।

    दीरघ होहिँ नैंक हूं फारि निहारैं नैन।।590।।

    गह्यौ अबोलौ बोलि प्यौ आपुहिँ पठै बसीठि।

    दीठि चुराई दुहुनु की लखि सकुचौंहीं दीठि।।591।।

    दुख-हाइनु चरचा नही आनन आनन आन।

    लगी फिरैं ढूका दिए कानन कानन कान।।592।।

    हितु करि तुम पठयौ लगैं वा बिजना की बाइ।

    टली तपति तन की तऊ चली पसीना न्हाइ।।593।।

    ध्यान आनि ढिग प्रानपति रहति मुदित दिन राति।

    पलकु कँपति पुलकित पलकु पलकु पसीजति जाति।।594।।

    सकै सताइ तमु बिरहु निसि दिन सरस सनेह।

    रहै वहै लागी दृगनु दीप-सिखा सी देह।।595।।

    बिरह जरी लखि जीगननु कह्यौ डहि कै बार।

    अरी आउ भजि भीतरी बरसत आजु अँगार।।596।।

    फिरि घर कौं नूतन पथिक चले चकित चित भागि।

    फूल्यौ देखि पलासु बन समुही समुझि दवागि।।597।।

    गड़ी कुटुम की भीर मैं रही बैठि दै पीठि।

    तऊ पलकु परि जाति इत सलज हँसौंहीं दीठि।।598।।

    नाउँ सुनत हीं ह्वै गयौ तनु औरै मनु और।

    दबै नहीं चित चढ़ि रह्यौ अबै चढ़ाऐं त्यौर।।599।।

    दुसह सौति-सालैं सु हिय गनति नाह-बियाह।

    धरे रूप गुन कौ गरबु फिरै अचेह उछाह।।600।।

    डिगत पानि डिगुलात गिरि लखि सब ब्रज बेहाल।

    कंपि किसोरी दरसि कै खरैं लजाने लाल।।601।।

    और सबै हरषी हँसतिँ गावतिँ भरी उछाह।

    तुँहीं बहू बिलखी फिरै क्यौं देवर कैं ब्याह।।602।।

    बाल छबीली पियनु मैं बैठी आपु छिपाइ।

    अरगट ही पानूस सी परगट होति लखाइ।।603।।

    एरी यह तेरी दई क्यौं हूं प्रकति जाइ।

    नेह भरै हिय राखियै तउ रूखियै लखाइ।।604।।

    इहिँ कांटैं मो पाइ गड़ि लीनी मरति जिवाइ।

    प्रीति जनावत भीति सौं भीति जु काढ़यौ आइ।।605।।

    नांक चढ़ै सीबी करै जितै छबीली छैल।

    फिरि फिरि भूलि वहै गहै प्यौ कँकरीली गैल।।606।।

    नटि सीस साबित भई लुटी सुखनु की मोट।

    चुप करि चारी करति सारी परी सलोट।।607।।

    जिहिँ भामिनि भूषनु रच्यौ चरन-महावर भाल।

    उहीं मनौ अँखियां रँगीं ओठनु कैं रँग लाल।।608।।

    तूं मोहन-मन गड़ि रही गाढ़ी गड़नि गुवालि।

    उठै सदा नटसाल ज्यौं सौतिनु कै उर सालि।।609।।

    लाज-लगामम मानहीं नैना मो बस नाहिँ।

    मुँहजोर तुरंग ज्यौं ऐंचत हूं चलि जाहिँ।।710।।

    कर-मुँदरी की आरसी प्रतिबिंबित प्यौ पाइ।

    पीठि दियैं निधरक लखै इकटक डीठि लगाइ।।611।।

    इती भीर हूँ भेदि कै कित हूं ह्वै इत आइ।

    फिरै डीठि जुरि डीठि सौं सब की डीठि बचाइ।।612।।

    लाई लाल बिलोकियै जिय की जीवन-मूलि।

    रही भौन के कोन मैं सोनजुही सी फूलि।।613।।

    ओठु उँचै हांसी-भरी दृग भौंहनु की चाल।

    मो मनु कहा पी लियौ पियत तमाकू लाल।।614।।

    जे तब होत दिखा दिखी भई अमी इक आंक।

    दगैं तीरछी डीठि अब ह्वै बीछी कौ डांक।।615।।

    नैंकौ उहिँ जुदी करी हरषि जु दी तुम माल।

    उर तैं बासु छुटयौ नहीं बास छुटैं हूं लाल।।616।।

    बिहँसि बुलाइ बिलोकि उत प्रौढ़ तिया रस घूमि।

    पुलकि पसीजति पूत कौ पिय-चूम्यौ मुँहु चूमि।।617।।

    देख्यौ अनदेख्यौ कियैं अँगु अँगु सबै दिखाइ।

    पैठति सी तन मैं सकुचि बैठी चितै लजाइ।।618।।

    पटु पांखै भखु कांकरै सपर परेई संग।

    सुखी परेवा पुहुमि मैं एकै तुहीं बिहंग।।619।।

    अरे परेखौ को करै तुहीं बिलोकि बिचारि।

    किहिँ नर किहिँ सर राखियै खरैं बढ़ैं परिपारि।।620।।

    तौ बलियै भलियै बनी नागर नंद-किसोर।

    जौ तुम नीकै कै लख्यौ मो करनी की ओर।।621।।

    चाह भरीं अति रस भरीं बिरह भरीं सब बात।

    कोरि सँदेसे दुहुनु के चले पौरि लौं जात।।622।।

    सुनि पग-धुनि चितई इतै न्हाति दियैं ही पीठि।

    चकी झुकी सकुची डरी हँसी लजी सी डीठि।।623।।

    कर लै सूंघि सराहि हूं रहे सबै गहि मौनु।

    गंधी अंध गुलाब कौ गवईं गाहकु कौनु।।624।।

    मिलि चलि चलि मिलि मिलि चलत आंगन अथयौ भानु।

    भयो मुहूरत भोर कौ पौरिहिँ प्रथमु मानु।।625।।

    पचरँग रँग वेंदी खरी उठै ऊगि मुख-जोति।

    पहिरै चीर चिनौटिया चटक चौगुनी होति।।626।।

    हँसि ओठनु बिच करु उचै कियैं निचौंहैं नैन।

    खरैं अरैं प्रिय कैं प्रिया लगी बिरी मुख दैन।।627।।

    बारौं बलि तो दृगनु पर अलि खंजन मृग मीन।

    आधी डीठि-चितौनि जिहिँ किए लाल आधीन।।628।।

    जात सयान अयान ह्वै वे ठग काहि ठगैं न।

    को ललचाइ लाल के लखि ललचौंहैं नैन।।629।।

    लखि लखि अँखियनु अधखुलिनु आंगु मोरि अँगिराइ।

    आधिक उठि लेटति लटकि आलस-भरी जम्हाइ।।630।।

    प्रेमु अडोलु डुलै नहीं मुँह बोलैं अनखाइ।

    चित उनकी मूरति बसी चितवनि मांहि लखाइ।।631।।

    नाक मोरि नाही ककै नारि निहोरैं लेइ।

    छुवत ओठ पिय आंगुरिनु बिरी बदन प्यौ देइ।।632।।

    गिरै कंपि कछु कछु रहै कर पसीजि लपटाइ।

    लैयौ मुठी गुलाल भरि छुटत झुठी ह्वै जाइ।।633।।

    देखत कछु कौतिगु इतै देखौ नैंकु निहारि।

    कब की इकटक डटि रही टटिया अँगुरिनु फारि।।634।।

    कर लै चूमि चढ़ाइ सिर उर लगाइ भुज भेटि।

    लहि पाती पिय की लखति पांचति धरति समेटि।।635।।

    चकी जकी सी ह्वै रही बूझैं बोलति नीठि।

    कहूं डीठि लागी लगी कै काहू की डीठि।।636।।

    भावरि अनभावरि भरे करौ कोरि बकवादु।

    अपनी अपनी भांति कौ छुटै सहजु सवादु।।637।।

    दूरयौ खरे समीप कौ लेत मानि मन मोदु।

    होत दुहुनु के दृगनु हीं बतरसु हँसी बिनोदु।।638।।

    मुखु उघारि पिउ लखि रहत रह्यौ गौ मिस सैन।

    फरके ओठ उठे पुलक गए उघरि जुरि नैन।।639।।

    पिय-मन रुचि ह्वैबौ कठिनु तन-रुचि होहु सिँगार।

    लाखु करौ आंखि बढ़ै बढ़ैं बढ़ाऐं बार।।640।।

    मनमोहन सौं मोहु करि तूं घनस्यामु निहारि।

    कुंजबिहारी सौं बिहरि गिरधारी उर धारि।।641।।

    मैं मिसहा सोयौ समुझि मुँहु चूम्यौ ढिग जाइ।

    हँस्यौ खिसानी गल गह्यौं रही गरैं लपटाइ।।642।।

    नीठि नीठि उठि बैठि हूं प्यौ प्यारी परभात।

    दोऊ नीद भरैं खरैं गरैं लागि गिरि जात।।643।।

    तनक झूठ सवादिली कौन बात परि जाइ।

    तिय-मुख रति-आरंभ की नहिँ झूठियै मिठाइ।।644।।

    नहिँ अन्हाइ नहिँ जाइ घर चितु चिहुँटयौ तकि तीर।

    परसि फुरहरी लै फिरति बिहँसति धँसति नीर।।645।।

    सटपटाति सैं ससिमुखी मुख घूंघट-पटु ढांकि।

    पावक-झर सी झमकि कै गई झरोखा झांकि।.646।।

    ज्यौं कर त्यौं चिकुटी चलति ज्यौं चिकुटी त्यौं नारि।

    छबि सौं गति सी लै चलति चातुर कातन-हारि।।647।।

    बुधि अनुमान प्रमान श्रुति किऐ नीठि ठहराइ।

    सूछम कटि पर ब्रह्म की अलख लखी नहिँ जाइ।।648।।

    खिचैं मान अपराध हूं चलि गै बढ़ैं अचैन।

    जुरत डीठि तजि रिस खिसी हँसे दुहुनु के नैन।.649।।

    रूप-सुधा-आसव छक्यौ आसव पियत बनै न।

    प्यालैं ओठ प्रिया-बदन रह्यौ लगाऐं नैन।।650।।

    यौं दयमलियतु निरदई दई कुसुम सौ गातु।

    करु धरि देखौ धरधरा उर कौ अजौं जातु।।651।।

    किती गोकुल कुलबधू किहिँ काहि सिख दीन।

    कौनैं तजी कुल-गली ह्वै मुरली-सुर-लीन।।652।।

    खलित बचन अधखुलित दृग ललित स्वेद-कन-जोति।

    अरुन बदन छबि मदन की खरी छबीली होति।।653।।

    बहकि इहिँ बहिनापुली जब तब बोर बिनासु।

    बचै बड़ी सबील हूं चील-घोंसुवा मांसु।।654।।

    लहि रति-सुखु लगियै हियैं लखी लजौंहीं नीठि।

    खुलति मो मन बँधि रही वहै अधखुली डीठि।।655।।

    कियौ सयानी सखिनु सौं नहिँ सयानु यह भूल।

    दुरै दुराई फूल लौं क्यौं पिय-आगम-फूल।।656।।

    आयौ मीतु बिदेस तैं काहू कह्यौ पुकारि।

    सुनि हुलसीं बिहँसीं हँसीं दोऊ दुहुनु निहारि।।657।।

    जद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुनौ दीपक-देह।

    तऊ प्रकासु करै तितौ भरियै जितैं सनेह।।658।।

    पलनु प्रगटि बरुनीनु बढ़ि नहिँ कपाल ठहरात।

    अँसुवा परि छतिया छिनकु छनछनाइ छिपि जात।।659।।

    फिरि सुधि दै सुधि द्याइ प्यौ इहिँ निरदई निरास।

    नई नई बहुरयौ दई दई उसासि उसास।।660।।

    समै पलट पलटै प्रकृति को तजै निज चाल।

    भौ अकरुन करुनाकरौ इहिँ कपूत कलिकाल।।661।।

    पारवौ सोरु सुहाग कौ इनु बिनु हीं पिय-नेह।

    उनदौंहीं अँखियाँ ककै कै अलसौंहीं देह।।662।।

    इन दुखिया अँखियानु कौं सुखु सिरज्यौई नांहि।

    देखैं बनै देखतै अनदेखैं अकुलांहि।.663।।

    लगी अनलगी सी जु बिधि करी खरी कटि खीन।

    किए मनौ वैं हीं कसर कुच नितंब अति पीन।।664।।

    छिनकु उघारति छिनु छुवति राखति छिनकु छिपाइ।

    सबु दिनु पिय-खंडित अधर दरपन देखत जाइ।।665।।

    मुँहु पखारि मुड़हरु भिजै सीस सजल कर छ्वाइ।

    मौरु उचै घूंटेनु तैं नारि सरोबर न्हाइ।।666।।

    कोरि जतन कोऊ करौ तन की तपनि जाइ।

    जौ लौं भीजे चीर लौं रहै प्यौ लपटाइ।।667।।

    चटक छांड़तु घटत हूं सज्जन-नेहु गँभीरु।

    फीकौ परै बरु फटै रँग्यौ चोल-रँग चीरुँ।।668।।

    दुसह बिरह दारुन दसा रहै और उपाइ।

    जात जात ज्यौं राखियतु प्यौ कौ नाउँ सुनाइ।।669।।

    फिरि फिरि दौरत देखियत निचले नैंक रहैं न।

    कजरारे कौन पर करत कजाकी नैन।।670।।

    को छूटयौ इहिँ जाल परि कत कुरंग अकुलात।

    ज्यौं ज्यौं सुरझि भज्यौ चहत त्यौं त्यौं उरझत जात।।671।।

    अब तजि नाउँ उपाउ कौ आए पावस मास।

    खेलु रहिबौ खेम सौं केम-कुसुम की बास।।672।।

    लसै मुरासा तिय-स्रवन यौं मुकतनु दुति पाइ।

    मानहु परस कपोल कैं रहे स्वेद-कन छाइ।।673।।

    मिलि परछांहीं जोन्ह सौं रहे दुहुनु के गात।

    हरि राधा इक संग हीं चले गली महिँ जात।।674।।

    बिधि बिधि कौन करै टरै नहीं परै हूं पानु।

    चितै कितै तै लै धरपौ इतौ इतैं तन मानु।।675।।

    मोर-चंद्रिका स्याम-सिर चढ़ि कत करति गुमानु।

    लखिबी पाइनु पर लुठति सुनियतु राधा-मानु।।676।।

    चिरजीवौ जोरी जुरै क्यों सनेह गँभीर।

    को घटि बृषभानुजा वे हलधर के बीरु।।677।।

    औरै गति औरै बचन भयौ बदन-रँगु औरु।

    द्योसक तैं पिय-चित चढ़ी कहैं चढ़ैं हूँ त्यौरु।।678।।

    बेंदी भाल तँबोल मुँह सीस सिलसिले बार।

    दृग आंजे राजै खरी एई सहज सिँगार।.679।।

    अंग अंग प्रतिबिंब परि दरपन सैं सब गात।

    दुहरे तिहरे चौहरे भूषन जाने जात।।680।।

    सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभिसमीर।

    मनु ह्वै जातु अजौं वहै उहि जमुना कै तीर।।681।।

    मोहि भरोसौ रीझिहै उझकि झांकि इक बार।

    रूप रिझावनहारु वह नैना रिझवार।।682।।

    भौंहनु त्रासति मुँह नटति आंखिनु सौं लपटाति।

    ऐंचि छुड़ावति करु इँची आगैं आवति जाति।।683।।

    रुक्यौ सांकरैं कुंज-मग करतु झांझि झकुरातु।

    मंद मंद मारुत-तुरँगु खूंदतु आवतु जातु।।684।।

    जदपि लौंग ललितौ तऊ तूं पहिरि इक आंक।

    सदा सांक बढ़ियै रहै रहै चढ़ी सी नाक।।685।।

    बरजैं दूनी हठ चढ़ै ना सकुचै सकाइ।

    टूटत कटि दुमची-मचक लचकि लचकि बचि जाइ।।686।।

    कर समेटि कच भुज उलटि खऐं सीस-पटु टारि।

    काकौ मनु बांधै यह जूरौ-बांधनहारि।।687।।

    पूछै क्यौं रूखी परति सगिबगि गई सनेह।

    मन मोहन-छबि पर कटी कहै कँटयानी देह।।688।।

    सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम सलौनैं गात।

    मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु परयौ प्रभात।।689।।

    भाल लाल बेंदी ललन आखत रहे बिराजि।

    इंदुकला कुज मैं बसी मनौ राहु-भय भाजि।।690।।

    अंग अंग छबि की लपट उपटति जाति अछेह।

    खरी पातरीऊ तऊ लगै भरी सी देह।।691।।

    दृग थिरकौंहैं अधखुलैं देह थकौहैं ढार।

    सुरत सुखित सी देखियति दुखित गरभ कैं भार।।692।।

    बिहँसति सकुचति सी दिऐं कुच-आंचर बिच बांह।

    भीजैं पट तट कौं चली न्हाइ सरोवर मांह।।693।।

    बरन बास सुकुमारता सब बिधि रही समाइ।

    पँखुरी लगी गुलाब की गात जानी जाइ।।694।।

    रंच लखियति पहिरि यौं कंचन सैं तन बाल।

    कुँभिलानैं जानी परै उर चंपक की माल।।695।।

    गोधन तूं हरष्यौ हियैं घरियक लेहि पुजाइ।

    समुझि परैगी सीस पर परत पसुनु के पाइ।।696।।

    मुहुँ धोवति एड़ी घसति हसति अनगवति तीर।

    धसति इंदीवर-नयनि कालिदी कैं नीर।।697।।

    बढ़त निकसि कुच-कोर-रुचि कढ़त गौर भुजमूल।

    मनु लुटि गौ लोटनु चढ़त चोटत ऊंचे फूल।।698।।

    अहे दहेंड़ी जिनि धरै जिनि तूं लेहि उतारि।

    नीकैं ही छींकैं छुवै ऐसैंई रहि नारि।।699।।

    न्हाइ पहिरि पटु डटि कियौ बेंदी-मिसि परनामु।

    दृग चलाइ घर कौं चली बिदा किए घनस्यामु।।700।।

    ज्यौं ह्वै हौं त्यौं होउँगौ हौं हरि अपनी चाल।

    हठु करौ अति कठिनु है मो तारिबो गोपाल।।701।।

    परसत पोंछत लखि रहतु लगि कपोल कैं ध्यान।

    कर लै प्यौ पाटल बिमल प्यारी-पठए पान।।702।।

    बामा भामा कामिनी कहि बोलौ प्रानेस।

    प्यारी कहत खिसात नहिँ पावस चलत बिदेस।।703।।

    उठि ठकु ठकु एतौ कहा पावस कैं अभिसार।

    जानि परैगी देखियौ दामिनि घन-अँधियार।।704।।

    कैवा आवत इहिँ गली रहौं चलाइ चलैं न।

    दरसन की साधै रहै सूधे रहैं नैन।।706।।

    बेसरि-मोती धनि तुहीं को बूझै कुल-जाति।

    पीवौ करि तिय-ओठ कौ रसु निवरक दिनराति।।706।।

    तिय-मुख लखि हीरा-जरी बेंदी बढ़ैं बिनोद।

    सुत-सनेह मानौ लियौ बिधु पूरन बुधु गोद।।707।।

    गोरी गदकारी परैं हँसत कपोलनु गाड़।

    कैसी लसति गवांरि यह सुनकिरवा की आड़।।708।।

    जौ लौं लखौं कुल-कथा तौ लौं ठिक ठहराइ।

    देखैं आवत देखि हीं क्यौं हूं रह्यौ जाइ।।709।।

    सामां सेन सयान की सबै साहि कैं साथ।

    बाहुबली जयसाहिजू फते तिहारैं हाथ।।710।।

    यौं दल काढ़े बालक तैं तैं जयसिंह भुवाल।

    उदर अघासुर कैं परैं ज्यौं हरि गाइ गुवाल।।711।।

    घर घर तुरकिनि हिदुनी देतिँ असीस सराहि।

    पतिनु राखि चादर चुरी तैं राखी जयसाहि।।712।।

    हुकुमु पाइ जयसाहि को हरि-राधिका-प्रसाद।

    करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद।।713।।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए