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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
बैत
ब-मर्दी के मुल्क-ए-सरासर ज़मीं
ब-मर्दी कि मुल्क-ए-सरासर ज़मींनयरज़द के ख़ूने चकद बर ज़मीं
सादी शीराज़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
मुल्क-ए-जन्नत है अगर शान-ए-वक़ार-ए-फ़ातिमाघर में चक्की पीसना भी है शिआ'र-ए-फ़ातिमा
अस'अद रब्बानी
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सूफ़ी कहावत
ख़ाक-ए-वतन अज़ मुल्क-ए-सुलैमाँ ख़ुश्तर
वतन की मिट्टी सुलैमान (नबी) की सलतनत से ज़्यादा बेहतर है
वाचिक परंपरा
बैत
दराँ तख़्त-ओ-मुल्क अज़ ख़लल ग़म बुवद
दराँ तख़्त-ओ-मुल्क अज़ ख़लल ग़म बुवदकि तदबीर-ए-शाह अज़ शबाँ कम बुवद
सादी शीराज़ी
दोहरा
माल मुल्क “शाहे-आलम” को दो, और ख़ज़ाने तुम्ही भरना
माल मुल्क “शाहे-आलम” को दो, और ख़ज़ाने तुम्ही भरनासैर करें अमराई तले तख छूटत चादर और झरना
शाह आलम सानी
ग़ज़ल
मुल्क-ए-ख़ुदा में यारो आबाद हैं तो हम हैंता'मीर-ए-दो-जहाँ की बुनियाद हैं तो हम हैं
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
ग़ज़ल
शहीद-ए-इ’श्क़-ए-मौला-ए-क़तील-ए-हुब्ब-ए-रहमानेजनाब-ए-ख़्वाजः क़ुतुबुद्दीं इमाम-ए-दीन-ओ-ईमाने
वाहिद बख़्श स्याल
सूफ़ी कहावत
रू-ए ज़ेबा मरहम-ए-दिलहा-ए-ख़स्ता अस्त-ओ-कलीद-ए-दरहा-ए-बस्ता
एक ख़ूबसूरत चेहरा दुखी दिलों के लिए मरहम की तरह होता है, और बंद दरवाजों के लिए कुंजी
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी