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ना'त-ओ-मनक़बत
इम्तिहाँ देता है रन में जाँ-निसार-ए-फ़ातिमादेखता है अर्श से वो किर्दगार फ़ातिमा
महमूद अहमद रब्बानी
ग़ज़ल
मिरी फ़ितरत वफ़ा है दे रहा हूँ इम्तिहाँ फिर भीवो फ़ितरत-आश्ना है और मुझ से बद-गुमाँ फिर भी
सीमाब अकबराबादी
शे'र
हश्र के दिन इम्तिहाँ पेश-ए-ख़ुदा दोनों का हैलुत्फ़ है उनकी जफ़ा मेरी वफ़ा से कम रहे
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
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शे'र
तिश्ना-लब छोड़ा मुझे क़ातिल ने वक़्त-ए-इम्तिहाँरूह मेरी आब-ए-ख़ंजर को तरसती रह गई
मुज़्तर ख़ैराबादी
कलाम
मिरे होते हुए कोई शरीक-ए-इम्तिहाँ क्यूँ होतिरा दर्द-ए-मोहब्बत भी नसीब-ए-दुश्मनाँ क्यूँ हो
बेदम शाह वारसी
शे'र
कोई मर कर तो देखे इम्तिहाँ-गाह-ए-मोहब्बत मेंकि ज़ेर-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल हयात-ए-जावेदाँ तक है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
ज़िंदगी निकली मुसलसल इम्तिहाँ-दर-इम्तिहाँज़िंदगी को दास्ताँ ही दास्ताँ समझा था मैं
जिगर मुरादाबादी
सूफ़ी लेख
हज़रत शैख़ बू-अ’ली शाह क़लंदर
मौलवी गुफ़्त: ज़े रू-ए-इम्तिहाँहम ख़ुदा ख़्वाही-ओ-हम दुनिया-ए-दूँ
सूफ़ीनामा आर्काइव
ग़ज़ल
न बैठ मुतमइन ऐ दिल कि है ये नादानीवो इम्तिहाँ से गुरेज़ाँ हैं इम्तिहाँ के लिए
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
सूफ़ी लेख
सूफ़ी क़व्वाली में महिलाओं का योगदान
क़दम साबित रहे राह-ए-वफ़ा में सख़्त मुश्किल हैफ़रिश्तों को डरा देता है यारब इम्तिहाँ तेरा
सुमन मिश्रा
ग़ज़ल
उसी दश्त-ए-इम्तिहाँ में कई बार डगमगायाकई बार गुल चुने हैं उसी दश्त-ए-इम्तिहाँ से