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Sufinama

इश्क़ की बर्बादियों को राएगाँ समझा था मैं

जिगर मुरादाबादी

इश्क़ की बर्बादियों को राएगाँ समझा था मैं

जिगर मुरादाबादी

MORE BYजिगर मुरादाबादी

    इश्क़ की बर्बादियों को राएगाँ समझा था मैं

    बस्तियाँ निकलीं जिन्हें वीरानियाँ समझा था मैं

    बे-हिजाबी को हिजाब-ए-दरमियाँ समझा था मैं

    सामने की बात थी लेकिन कहाँ समझा था मैं

    हर निगह को तब-ए-नाज़ुक पर गराँ समझा था मैं

    वो भी क्या दिन थे जब उस को बद-गुमाँ समझा था मैं

    शाद-बाश-ओ-ज़िंदा-बाश इश्क़-ए-ख़ुश सौदा-ए-मन

    तुझ से पहले अपनी अज़्मत भी कहाँ समझा था मैं

    क्या ख़बर थी ख़ुद वो निकलेंगे बराबर के शरीक

    दिल की हर धड़कन को अपनी दास्ताँ समझा था मैं

    याद अय्यामे कि जब ज़ौक़-ए-तलब कामिल था

    हर ग़ुबार-ए-कारवाँ को कारवाँ समझा था मैं

    आदमी को आदमी से बाद वो भी किस क़दर

    ज़िंदगी को ज़िंदगी का राज़-दाँ समझा था मैं

    क्या बताऊँ किस क़दर ज़ंजीर-ए-मा-साबित हुए

    चंद तिनके जिन को अपना आशियाँ समझा था मैं

    ज़िंदगी निकली मुसलसल इम्तिहाँ-दर-इम्तिहाँ

    ज़िंदगी को दास्ताँ ही दास्ताँ समझा था मैं

    उस घिरी की शर्म रख ले निगाह-ए-नाज़-ए-दोस्त

    हर-नफ़स को जब हयात-ए-जाविदाँ समझा था मैं

    मेरी ही रूदाद-ए-हस्ती थी मिरे ही सामने

    आज तक जिस को हदीस-ए-दीगराँ समझा था मैं

    पर्दः उठा तो वही सूरत नज़र आई 'जिगर'

    मुद्दतों रूहुल-क़ुदुस को हम-ज़बाँ समझा था मैं

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