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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ पर
अकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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ना'त-ओ-मनक़बत
हक़ीक़त मेरे ख़्वाजा की कोई बे-’इल्म क्या जाने
ख़ुदा ही ख़ूब जाने है ओ या बस मुस्तफ़ा जाने
ज़ैनुल आबिदीन चिश्ती
ग़ज़ल
ख़ुद अपने ’इल्म की आँखों में बे-पर्दा नहीं आता
बहुत देखा है अपने आप को लेकिन नहीं देखा
ज़हीन शाह ताजी
ग़ज़ल
शहीद-ए-इ’श्क़-ए-मौला-ए-क़तील-ए-हुब्ब-ए-रहमाने
जनाब-ए-ख़्वाजः क़ुतुबुद्दीं इमाम-ए-दीन-ओ-ईमाने
वाहिद बख़्श स्याल
सूफ़ी कहावत
रू-ए ज़ेबा मरहम-ए-दिलहा-ए-ख़स्ता अस्त-ओ-कलीद-ए-दरहा-ए-बस्ता
एक ख़ूबसूरत चेहरा दुखी दिलों के लिए मरहम की तरह होता है, और बंद दरवाजों के लिए कुंजी
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबी
निज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी