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ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
क़िता'
कभी हयात का ख़ौफ़ और कभी ममात का डर'अली हैं हामी तो क्यूँ कर है मुश्किलात का डर
सक़लैन अहमद जाफ़री
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कलाम
कभी का'बे में पाता हूँ कभी बुत-ख़ाने के अंदरलगा के तुझ से दिल फिरता हूँ मारा-मारा मैं दर-दर
फ़राज़ वारसी
शे'र
कामिल शत्तारी
ग़ज़ल
है वो एक जल्वः इधर-उधर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़कभी अर्श पर कभी फ़र्श पर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
अकबर वारसी मेरठी
ग़ज़ल
मिज़ाज-ए-यार का आलम कभी कुछ है कभी कुछ हैदिल-ए-मजरूह का मरहम कभी कुछ है कभी कुछ है
अब्दुल हादी काविश
ग़ज़ल
मिज़ाज-ए-यार का आ'लम कभी कुछ है कभी कुछ हैदिल-ए-मजरूह का मरहम कभी कुछ है कभी कुछ है
अब्दुल हादी काविश
कलाम
फ़राज़ वारसी
ग़ज़ल
शाह अकबर दानापूरी
सूफ़ी कहानी
ख़ुदा का मूसा को हुक्म देना कि मुझको उस मुँह से बुला कि जिससे कभी गुनाह ना किया हो- दफ़्तर-ए-सेउम
अगर तू दुआ’ के वक़्त ज़िक्र-ए-इलाही में मशग़ूल नहीं रहता तो जा साफ़ बातिन लोगों से