है वो एक जल्वः इधर-उधर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
है वो एक जल्वः इधर-उधर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
कभी अर्श पर कभी फ़र्श पर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
कहीं ज़ात-ए-हक़ कहीं मुस्तफ़ा कभी इस तरह कभी उस तरह
है कहीं बशीर कहीं बशर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
कहीं ऐसा कोई मकाँ नहीं कि जहाँ वो जान-ए-जहाँ नहीं
हैं सब उस से ताज़: शजर हजर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
गया कोहकन इसी ज़ौक़ में जला क़ैस आतिश-ए-शौक़ में
तिरे शोबदों के उड़े शरर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
कहीं मिल ख़ुदा के लिए सनम कभी दैर पहुँचा कभी हरम
मैं ख़राब फिरता हूँ दर-ब-दर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
यही ख़ैर है कहीं शर न हो कोई बे-गुनाह इधर न हो
वो चले हैं करते हुए नज़र कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
तिरी महर से किसी काम का न जिगर रहा है न दिल रहा
गई बर्छी बन के नज़र उतर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
तिरे दौर-दौरे हूँ साक़िया वो मिला शराब-ए-दो-आतिशः
गिरें मस्त मस्तों पे झूम कर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
तिरे रंग-ए-हुस्न को देखता ये फिरा है 'अकबर'-ए-मुब्तला
कभी दश्त में कभी कोह पर कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़
- पुस्तक : रियाज़-ए-अकबर: असली दीवान-ए-अकबर (पृष्ठ 40)
- रचनाकार : मोहम्मद अकबर ख़ाँ वारसी
- प्रकाशन : मतबा मजीदी, मेरठ
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