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कवित्त
वृन्दावन कीरत विनोद कुंज कुंजन में
कालीदः कवि कारे पताल पैठि नाग नाथ्यो,केतकी के फूल तोरि लाये माला हार की।।
कारे ख़ान फ़क़ीर
कवित्त
माफ किया मुलुक मताह दी विभीषन को
'कारे' के करार माहि क्यों न दिल दार हुए,एरे नन्दलाल क्यों हमारे बार बार की।।
कारे ख़ान फ़क़ीर
कवित्त
छल बल करि थाक्यो अनेक गजराज भारी
कहिबे को भयो करुना की कवि 'कारे' कहैंरही नेक नाक और सब या डुबा गयो।।
कारे ख़ान फ़क़ीर
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पद
सुरत की प्रगति - आज घिर आये बादल कारे गरज गरज घन गगन पुकारे
आज घिर आये बादल कारे गरज गरज घन गगन पुकारेरिम-झिम बरसत बूँद अमी की बिजली चमक घट नैन निहारे
शालीग्राम
कवित्त
पावस न प्यारी चढ़यो सैन साजि मैन भारी
प्यारे के निरादर ते 'कादर' करनि हारेकारे कारे धूम धारे बादर द्विरद जाल।
क़ादिर बख़्श
सूफ़ी लेख
निर्गुण कविता की समाप्ति के कारण, श्री प्रभाकर माचवे - Ank-1, 1956
तेथे मनुष्याचें काय आहे तुका म्हणे कारे नाशवंतासाठीं
भारतीय साहित्य पत्रिका
सूफ़ी लेख
चिश्तिया सिलसिला की ता’लीम और उसकी तर्वीज-ओ-इशाअ’त में हज़रत गेसू दराज़ का हिस्सा
बर कारे इत्तिफ़ाक़ कर्दंदचूँ आँ कार बा तमाम रसीद
ख़लीक़ अहमद निज़ामी
सूफ़ी लेख
हज़रत सैयद ज़ैनुद्दीन अ’ली चिश्ती
पायो लिख नव अख्खर कारेबातिन रौशन हुआ, निगाहें खुल गईं
सय्यद रिज़्वानुल्लाह वाहिदी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
गुफ़्त चू दीं रफ़्त चे जाए दिलस्तइश्क़-ए-तरसाज़ाद: कारे मुश्क़िलस्त