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शे'र
कूचा-ए-क़ातिल में जाकर हाथ से रक्खें तुझेओ दिल-ए-बेताब हमने इसलिए पाला नहीं
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
शे'र
कूचा-ए-क़ातिल में मुझको घेर कर लाई है येजीते जी जन्नत में पहुंचा दे क़ज़ा ऐसी तो हो
कैफ़ी हैदराबादी
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ग़ज़ल
हुकूमत के मज़ालिम जब से इन आँखों ने देखे हैंजिगर हम बम्बई को कूचा-ए-क़ातिल समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
कलाम
शौक़ से ना-कामी की बदौलत कूचा-ए-दिल भी छूट गयासारी उमीदें टूट गईं दिल बैठ गया जी छूट गया
फ़ानी बदायूँनी
ना'त-ओ-मनक़बत
ग़ुबार-ए-कूचा-ए-मिर्ज़ा हूँ नक़्श-ए-आब नहींक़ुर्ब हो के मिट्टी मेरी ख़राब नहीं
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
शे'र
ख़ुदा जाने मिरी मिट्टी ठिकाने कब लगे 'मुज़्तर'बहुत दिन से जनाज़ा कूचा-ए-क़ातिल में रक्खा है
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
ख़ुदा जाने मिरी मिट्टी ठिकाने कब लगे 'मुज़्तर'बहुत दिन से जनाज़ा कूचा-ए-क़ातिल में रक्खा है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ख़ुदा जाने मिरी मिट्टी ठिकाने कब लगे 'मुज़्तर'बहुत दिन से जनाज़ः कूचा-ए-क़ातिल में रक्खा है
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
ख़ुदा जाने मिरी मिट्टी ठिकाने कब लगे 'मुज़्तर'बहुत दिन से जनाज़ः कूचा-ए-क़ातिल में रक्खा है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
कूचा-ए-क़ातिल में जा कर हाथ से रक्खें तुझेओ दिल-ए-बेताब हमने इसलिए पाला नहीं
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
कलाम
क़त्ल के अरमान में ख़ून होती हैं दिल की हसरतेंकूचा-ए-क़ातिल को अब हम कर्बला कहने को हैं