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ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं

जिगर मुरादाबादी

ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं

जिगर मुरादाबादी

MORE BYजिगर मुरादाबादी

    ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं

    ज़बान-ए-हाल रखते हैं ज़बान-ए-दिल समझते हैं

    जिसे सब लोग हुस्न-ओ-इश्क़ की मंज़िल समझते हैं

    बुलंद उस से भी हम अपना मक़ाम-ए-दिल समझते हैं

    हक़ीक़त में जो राज़-ए-दूरी-ए-मंज़िल समझते हैं

    उन्हीं को हम सुलूक-ए-इश्क़ में कामिल समझते हैं

    हमें क्यूँ वो जफ़ा-ए-ख़ास के क़ाबिल समझते हैं

    ये राज़-ए-दिल है इस को मुजरिमान-ए-दिल समझते हैं

    इसी इक जुर्म पर अग़्यार हैं बरपा क़यामत है

    कि हम बेदार हैं और अपना मुस्तक़बिल समझते हैं

    निगाहों में कुछ ऐसे बस गए हैं हुस्न के जल्वे

    कोई महफ़िल हो लेकिन हम तिरी महफ़िल समझते हैं

    कोई माने माने उस को लेकिन ये हक़ीक़त है

    हम अपनी ज़िंदगी में ग़ैब को शामिल समझते हैं

    ये नर्म-ओ-नातवाँ मौजें ख़ुदी का राज़ क्या जानें

    क़दम लेते हैं तूफ़ाँ अज़्मत-ए-साहिल समझते हैं

    हुकूमत के मज़ालिम जब से इन आँखों ने देखे हैं

    जिगर हम बम्बई को कूचा-ए-क़ातिल समझते हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल्लियात-ए-जिगर (पृष्ठ 53)
    • रचनाकार : जिगर मुरादाबादी
    • प्रकाशन : एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली (2011)

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