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कलाम
मुम्ताज़ अशरफ़ी
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ऐ जान-ए-मा ऐ जान-ए-मा ऐ कुफ़्र-ओ-ईमान-ए-माख़्वाहम कि ईं ख़र-मोहरः रा गौहर कुनी दर कान-ए-मा
रूमी
ना'त-ओ-मनक़बत
है मेरे ख़्वाजा की हर एक अदा अदा-ए-रसूलयही हैं आल नबी और यही ’अता-ए-रसूल
वजाहत हुसैन दाइम
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ना'त-ओ-मनक़बत
वासिफ़ रज़ा वासिफ़
ना'त-ओ-मनक़बत
जान-ए-जान-ए-मुस्तफ़ा-ओ-मुर्तज़ा आने को हैसय्यदा की गोद में इक मह-लक़ा आने को है
सय्यद फ़ैज़ान वारसी
सूफ़ी लेख
ज़िक्र-ए-ख़ैर : हज़रत हसन जान अबुल उलाई
हमारे सूबा-ए-बिहार में शहसराम को ख़ास दर्जा हासिल है।यहाँ औलिया ओ अस्फ़िया और शाहान ए ज़माना
रय्यान अबुलउलाई
फ़ारसी कलाम
जान-ए-मुश्ताक़ाँ ज़े याद-ए-ख़्वेश शादाँ करद: ईरस्म-ए-ताज़: कर्द: ई ख़ुद रा चू पिन्हाँ करद: ई