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ग़ज़ल
जुनूँ ने फ़ास्ला रखा न कोई इ'श्क़-ओ-इ’रफ़ाँ मेंगरेबाँ के ए’वज़ अब हाथ उलझता है गरेबाँ में
अख़तर अ’लीगढ़ी
ग़ज़ल
जुनूँ को अब जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ कर के छोड़ूँगाहद-ए-दामन को ता-हद्द-ए-गरेबाँ कर के छोड़ूँगा
अफ़क़र मोहानी
कलाम
ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इ’श्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रहीन तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
जुनूँ से कुछ नहीं चारा करे क्या क़ैस बेचाराबरहना-पा बरहना-सर फिरे है बन में आवारा
शाह तुराब अली क़लंदर
शे'र
जुनूँ ज़ाहिर हुआ रुख़ पर ख़ुदी पर बे-ख़ुदी छाईब-क़ैद-ए-होश मैं जब भी क़रीब-ए-आस्ताँ पहुँचा
फ़ना बुलंदशहरी
कलाम
जुनूँ वज्ह-ए-शिकस्त-ए-रंग-ए-महफ़िल होता जाता हैज़माना अपने मुस्तक़बिल में दाख़िल होता जाता है