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कलाम
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी काअगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
रुख़-ए-पुर-नूर का जल्वा दिखा दो या रसूलुल्लाहकरम से आरज़ू दिल की दिला दो या रसूलुल्लाह
मीराँ शाह जालंधरी
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शे'र
इलाही ख़ैर ज़ोरों पर बुतान-ए-पुर-ग़ुरूर आएकहीं ऐसा न हो ईमान-ए-आ’लम में फ़ुतूर आए
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
असीर-ए-गेसू-ए-पुर-ख़म बनाए पहले आशिक़ कोनिकाले फिर वो पेच-ओ-ख़म कभी कुछ है कभी कुछ है
अब्दुल हादी काविश
ना'त-ओ-मनक़बत
अल्लाह ग़नी कैसी वो पुर-कैफ़ घड़ी थीजब सामने नज़रों के मदीने की गली थी