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शे'र
जिस्म का रेशा रेशा मचले दर्द-ए-मोहब्बत फ़ाश करेइ’शक में 'काविश' ख़ामोशी तो सुख़नवरी से मुश्किल है
अब्दुल हादी काविश
कलाम
कहते हैं किस को दर्द-ए-मोहब्बत कौन तुम्हें बतलाएगाप्यार किसी से कर के देखो ख़ुद ही पता चल जाएगा
पुरनम इलाहाबादी
ग़ज़ल
साफ़ तौहीन है ये दर्द-ए-मोहब्बत की 'हफ़ीज़'हुस्न का राज़ हो और मेरी ज़बाँ तक पहुँचे
हफ़ीज़ होश्यारपुरी
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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
अब रहे दर्द-ए-मोहब्बत हज़रत-ए-'क़ातिल' कहाँदिल अज़ल से हो गया नज़्राना-ए-शाह-ए-रुसुल
क़ातिल अजमेरी
ना'त-ओ-मनक़बत
मुदावा हो नहीं सकता मेरे दर्द-ए-मोहब्बत कामगर मा'लूम है इस की दवा अजमेर वाले को
शाह मस'ऊदुल हसन
सूफ़ी लेख
हज़रत गेसू दराज़ का मस्लक-ए-इ’श्क़-ओ-मोहब्बत - तय्यब अंसारी
हज़रत अबू-बकर सिद्दीक़ रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु ने फ़रमाया था:परवाने को चराग़ है, बुलबुल को फूल बस