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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
ज़िया दीदा-ए-हक़बीं है रूख़्सारा मोहम्मद काकि है अल्लाह का दीदार नज़्ज़ारा मोहम्मद का
अज्ञात
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ग़ज़ल
जिस को देखा यार तेरा आ'शिक़-ए-ना-दीदा हैमुझ पे क्या मौक़ूफ़ इक आ'लम तेरा गिरवीदा है
बेदम शाह वारसी
कलाम
कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म दीदा-ए-तर को क्या करूँदिल की तपिश को क्या करूँ सोज़-ए-जिगर को क्या करूँ
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
शहीद-ए-इ’श्क़-ए-मौला-ए-क़तील-ए-हुब्ब-ए-रहमानेजनाब-ए-ख़्वाजः क़ुतुबुद्दीं इमाम-ए-दीन-ओ-ईमाने
वाहिद बख़्श स्याल
सूफ़ी कहावत
रू-ए ज़ेबा मरहम-ए-दिलहा-ए-ख़स्ता अस्त-ओ-कलीद-ए-दरहा-ए-बस्ता
एक ख़ूबसूरत चेहरा दुखी दिलों के लिए मरहम की तरह होता है, और बंद दरवाजों के लिए कुंजी
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी