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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
फ़ारसी कलाम
ऐ माह-ए-मन-ओ-शाह-ए-सिपाह-ए-हम: ख़ूबाँख़ूबाँ हम: शाहंद-ओ-तू-शाह-ए-हम: ख़ूबाँ
नूरुद्दीन हिलाली
ना'त-ओ-मनक़बत
ब-ख़ूबी मेहर-ए-ताबाँ माह से ता-ब-माही होबड़ा क्या उस से रुत्बा हो कि महबूब-ए-इलाही हो
अज्ञात
ना'त-ओ-मनक़बत
माह-ए-रिसालत मोहर-ए-नबुव्वत नय्यर-ए-आ'ज़म आक़ा हैंशान-ए-शरी'अत शम'-ए-हिदायत दीन का परचम आक़ा हैं
ख़ालिद नदीम बदायूँनी
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सूफ़ी प्रतीक
माह-ए-नख़्शब
नख़्शब ईरान का एक शहर है. यहाँ एक हकीम इब्न-ए-अ’ता रहता था जिसे इब्न-ए-मुक़न्ना भी कहते
अज्ञात
फ़ारसी कलाम
बुते दारम सुख़न्दाने परी-वश माह-ए-कनआ'नेजवाने ना मुसल्माने अ'दू-ए-दीन-ओ-ईमाने
ग़ुलाम इमाम शहीद
ना'त-ओ-मनक़बत
शाह फ़ाइक़ शहबाज़ी
ग़ज़ल
न ख़्वाहाँ ताज-ए-ख़ुसरव का न मैं तख़्त-ए-सिकंदर कामुक़द्दर उस जगह ले चल भिकारी हूँ मैं जिस दर का
फ़ज़लुर रहमान माह
फ़ारसी कलाम
ऐ माह-ए-रास्तीं ज़े-शबिस्तान-ए-कीस्तीवाए आफ़ताब-रूए ब-गो ज़ान-ए-कीस्ती
शैख़ जमालुद्दिन हान्सवी
फ़ारसी कलाम
ऐ माह-ए-ख़ूबाँ यक शबे बा-ख़्वेश मेहमाँ कुन मरावज़ आफ़ताब-ए-रु-ए-ख़ुद चूँ सुब्ह ख़ंदाँ कुन मरा
अमीर हसन अला सिज्ज़ी
ग़ज़ल
ऐ माह-ए-ख़ुश-रू कह दे अब जो बात हैकि पैमाना-ए-तजस्सुसस-ए-मन मुंतज़िर-ए-ब-इल्तिफ़ात है
अहमद अब्दुल रहमान
कलाम
बुतान-ए-माह-वश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैंकि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं