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ग़ज़ल
ये दिल का'बे का का'बा है ये बुत-ख़ाने का बुत-ख़ानाइसे कहते हैं आ'शिक़ जल्वा-गाह-ए-हुस्न जानाना
अनवर फ़िरोज़पुरी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
मुसलमाँ गर ब-दानिस्ते कि बुत चीस्तब-दानिस्ते कि दीं दर बुत परस्ती-अस्त
महमूद शबिस्तरी
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ग़ज़ल
ओ बुत-ए-नाज़ुक जहाँ है ओछ बुत-ख़ानः है ख़ूबहै मकाँ होर नईं मकीन तू दश्त-ओ-वीरानः है ख़ूब
तुराब अली दकनी
ग़ज़ल
बुत यहाँ मिलते नहीं हैं या ख़ुदा मिलता नहींअ'ज़्म मुस्तहकम तो हो दुनिया में क्या मिलता नहीं
अब्दुल लतीफ़ शौक़
शे'र
इ'श्क़-ए-बुत का'बा-ए-दिल में है ख़ुदाया जब सेतेरा घर भी मुझे बुत-ख़ाना नज़र आता है
पुरनम इलाहाबादी
ग़ज़ल
कोई बुत कहते हैं और कोई ख़ुदा कहते हैंहम से जो पूछो तो दोनों से जुदा कहते हैं