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ग़ज़ल
ये तक्लीफ़-ए-क़दम-बोसी ये अंदाज़-ए-पज़ीराईहमारा मुंतज़िर था ग़ालिबन वीराना बरसों से
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ना'त-ओ-मनक़बत
मुश्ताक़-ए-क़दम-बोसी है ख़ुद ’अर्श-ए-इलाहीऐ सल्ले-अ'ला सतवत-ए-सुल्तान-ए-मदीना
अब्दुल हादी काविश
ना'त-ओ-मनक़बत
ख़ाक-बोसी पे बाद-ए-बहारी रहे फ़ैज़ जारी रहेआ'लम-ए-कैफ़ में बज़्म सारी रहे फ़ैज़ जारी रहे
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ना'त-ओ-मनक़बत
क़दम-बोसी को झुक जाती हैं नज़रें ख़ुद-बख़ुद मेरीमुक़द्दस नक़्श-पा-ए-ग़ौस जब याद आने लगते हैं