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ग़ज़ल
सुकून-ए-क़ल्ब किसी को नहीं मयस्सर आजशिकस्त-ए-ख़्वाब है हर शख़्स का मुक़द्दर आज
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
ना'त-ओ-मनक़बत
मयस्सर हो दिला हर-दम जिसे दीदार वारिस कीक़दम चूमे बलाएँ लें सर-ए-दरबार वारिस की
जंगली शाह वारसी
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सूफ़ी लेख
उ’र्फ़ी हिन्दी ज़बान में - मक़्बूल हुसैन अहमदपुरी
12۔ उ’र्फ़ी अगर ब-गिर्य: मयस्सर शुदे विसालसद साल मी-तवाँ ब-तमन्ना गिरेस्तन
ज़माना
ना'त-ओ-मनक़बत
तेरे मिज़ाह-ए-इस्तादा हैं ‘सिराज’-ए-ख़स्ताकर दे मुझे मयस्सर तेरा विसाल ख़्वाजा