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ना'त-ओ-मनक़बत
सुन ऐ बाद-ए-सबा तु जानिब-ए-तैबः अगर गुज़रेतू जा कर थामना बाब-ए-हरीम-ए-ख़ास के पर्दे
मुज़्तर ख़ैराबादी
कलाम
फिरा ज़माना में चार जानिब सनम सरापा तुम्हीं को देखाहसीन देखे जमील देखे पर एक तुम सा तुम्हीं को देखा
अज्ञात
कलाम
फिरे ज़माने में चार जानिब निगार यकता तुम्हीं को देखाहसीन देखा जमील देखा व-लेक तुम सा तुम्हीं को देखा
अज्ञात
ना'त-ओ-मनक़बत
सुन ऐ बाद-ए-सबा तू जानिब-ए-तैबा अगर गुज़रेतो जा कर थामना बाब-ए-हरीम-ए-ख़ास के पर्दे
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
अब्दुल हादी काविश
कलाम
तसद्दुक़ अ’ली असद
ग़ज़ल
अब्दुल हादी काविश
कलाम
फिरे ज़माना में चार जानिब निगार-ए-यकता तुम ही को देखाहसीन देखे जमील देखे व-लेक तुम सा तुम ही को देखा
अज्ञात
ग़ज़ल
निगराँ कभू न ये जानिब रुख़ दिल-फ़रेब परी रहीमिरी चश्म ता-निगह बसीं तिरी महव जल्वागरी रही
रासिख़ अज़ीमाबादी
कलाम
अगर का'बः का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाएतो फिर सज्दः मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
बेदम शाह वारसी
फ़ारसी कलाम
वक़्त आँ अस्त कि मा जानिब-ए-मय-ख़ानः शवेमचुँ परी साक़ी-ए-मा शुद हम: दीवान: शवेम