जमाल-ए-इंसाँ की आड़ में ख़ुद वो अपनी जानिब बुला रहे हैं
जमाल-ए-इंसाँ की आड़ में ख़ुद वो अपनी जानिब बुला रहे हैं
तसद्दुक़ अ’ली असद
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जमाल-ए-इंसाँ की आड़ में ख़ुद वो अपनी जानिब बुला रहे हैं
दिखा दिखा के वो अपनी छलबल दिलों को सब के लुभा रहे हैं
नमाज़ कैसे पढ़ूँ मैं ज़ाहिद यहाँ तो फ़ुर्सत नहीं है दम की
सबक़ मोहब्बत का अपनी हर दम वो बैठे दिल में पढ़ा रहे हैं
महल-ए-फ़ना में जो जा के देखा नज़र ये आया हमें तमाशा
हज़ारों मर्दों को वो उठा कर बक़ा का जामा पहना रहे हैं
बने वो बैठे हैं आज साक़ी लिए हैं हाथों में शीशा-ए-मय
अगर है ख़्वाहिश तो जल्द दौड़ो फ़ना का साग़र पिला रहे हैं
हुए हैं हम से वो ऐसे बे-रुख़ नहीं लगाते हैं कान उस पर
हम अपना क़िस्सा-ए-ग़म-ओ-अलम का हमेशा उन को सुना रहे हैं
हज़ारों फ़ित्ने उठाएँगे वो बपा क़ियामत करेंगे बे-शक
रसीली आँखों से चुपके-चुपके नया वो जादू जगा रहे हैं
यक़ीन-ए-कामिल है आख़िरत में उन्हीं को क़ुर्ब-ए-विसाल होगा
'असद' जो दुनिया में अपनी हस्ती वुजूद-ए-हक़ में मिटा रहे हैं
- पुस्तक : Rooh-e-Sama, Part 2 (पृष्ठ 238)
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