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ग़ज़ल
अ’र्शी औरंगाबादी
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कलाम
निशात-ए-हाल ने 'सीमाब' ऐसी लोरियाँ दी हैंख़ुदाई अपने मुस्तक़बिल से ग़ाफ़िल होती जाती है
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
हाथ पर तू ने मुक़द्दर की लकीरें खींच दींक्या तुझे भी मेरे मुस्तक़बिल का अंदाज़ः नहीं
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
फ़ुज़ूँ होता है या कम-इज़्तिराब-ए-दिल ख़ुदा जानेनिगाहें हाल पर रहती हैं मुस्तक़बिल ख़ुदा जाने
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
इसी इक जुर्म पर अग़्यार हैं बरपा क़यामत हैकि हम बेदार हैं और अपना मुस्तक़बिल समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
कलाम
जुनूँ वज्ह-ए-शिकस्त-ए-रंग-ए-महफ़िल होता जाता हैज़माना अपने मुस्तक़बिल में दाख़िल होता जाता है
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
मैं ने माज़ी और मुस्तक़बिल की सदियाँ छान लींमैं ने देखा वक़्त के कीसे में लम्हा एक है
अहमद नदीम क़ासमी
कलाम
हाल मुस्तक़बिल-ओ-माज़ी का है नक़्शा ध्यान मेंइसलिए कहता हूँ ख़ुद को जान क्या था क्या हुआ
अज़ीज़ुद्दीन रिज़वाँ क़ादरी
कलाम
जिसे इक इक क़दम पर फ़िक्र-ए-मुस्तक़बिल सताती हैवो दीवाना हवस का तेरे ग़म में मुब्तला क्यूँ हो