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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ग़ज़ल
जो कैफ़ है फ़िराक़ में वो फिर कहाँ विसाल मेंये बे-ख़ुदी जो है मुझे किसी के हूँ ख़याल में
नुशूर वाहिदी
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ना'त-ओ-मनक़बत
हरीम-ए-क़ुद्स के पर्दे उठा दिए तुम नेजो राज़-ए-हक़ थे हमें वो बता दिए तुम ने
कैफ़ इलाहाबादी
ना'त-ओ-मनक़बत
रहमतों पर है नज़र हर्फ़-ए-दु’आ कैफ़ में हैबिखरे अनवार तवक्कुल हैं रज़ा कैफ़ में है
रमज़ान हैदर फ़िरदौसी
ग़ज़ल
हिजाब-ए-ख़ास के पर्दे उठे हैं कैफ़-ओ-मस्ती मेंन जाने किस की हस्ती देखता हूँ अपनी हस्ती में
मुज़्तर ख़ैराबादी
कलाम
अज़ल में जो सदा मैं ने सुनी थी कैफ़-ए-मस्ती मेंवही आवाज़ अब तक सुन रहा हूँ साज़-ए-हस्ती में
ख़ादिम हसन अजमेरी
शे'र
विसाल-ए-यार जब होगा मिला देगी कभी क़िस्मततबीअ'त में तबीअ'त को दिल-ओ-जाँ में दिल-ओ-जाँ को
राक़िम देहलवी
कलाम
ये कहाँ थी मेरी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होतामेरी तरह काश उन्हें भी मेरा इंतिज़ार होता