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कलाम
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गईदिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मौज़ू-ए-सुख़न
गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शामधुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शे'र
फ़ना बुलंदशहरी
छप्पय
गहर वाग रंग राग, तहां ध्यान धरि जोगी बैठा।
गहर वाग रंग राग, तहां ध्यान धरि जोगी बैठा।जंबकि मारया सिंघ, सूर ससिहर अंग पैठा।।
महाराज हरिदास
शे'र
हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले हज़ार दौर-ए-नशात आएजो बुझ चुका है हवा-ए-ग़म से चराग़ फिर वो जला नहीं है