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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
सदा ही मेरी क़िस्मत जूँ सदा-ए-हल्क़ा-ए-दर हैअगर मैं घर में जाता हूँ तो वो बाहर निकलता है
अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी
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दोहरा
सदा ना रसत बाज़ारीं विकसी सदा ना रौनक शहरां
सदा ना रसत बाज़ारीं विकसी सदा ना रौनक शहरांसदा ना मौज जवानी वाली सदा ना नदीए लहरां
मियां मोहम्मद बख़्श
दोहरा
सदा ना रूप गुलाबां उते सदा ना बाग़ बहारां
सदा ना रूप गुलाबां उते सदा ना बाग़ बहारांसदा ना भज भजि फेरे करसन तोते भौर हज़ारां
मियां मोहम्मद बख़्श
दोहरा
सदा ना लाट चिराग़ां वाली सदा ना सोज़ पतंगां
सदा ना लाट चिराग़ां वाली सदा ना सोज़ पतंगांसदा उडारां नाळ कतारां रहसन कद कुलंगां
मियां मोहम्मद बख़्श
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
शगुफ़्तः शुद गुल-ए-हमरा-ओ-गश्त बुलबुल मस्तसला-ए-सर-ख़ुश ऐ सुफि़यान-ए-बाद:-परस्त
हाफ़िज़
कलाम
अज़ल में जो सदा मैं ने सुनी थी कैफ़-ए-मस्ती मेंवही आवाज़ अब तक सुन रहा हूँ साज़-ए-हस्ती में
ख़ादिम हसन अजमेरी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
तन पीर गश्त व आरज़ू-ए-दिल जवाँ हुनूज़दिल ख़ूँ शुद व हदीस-ए-बुताँ बर ज़बाँ हुनूज़
अमीर ख़ुसरौ
शे'र
कब दिमाग़ इतना कि कीजे जा के गुल-गश्त-ए-चमनऔर ही गुलज़ार अपने दिल के है गुलशन के बीच