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ना'त-ओ-मनक़बत
क्यूँ न हो हर-सम्त शहर ख़्वाजा-ए-अजमेर काहिन्द के दिल पर है क़ब्ज़ा ख़्वाजा-ए-अजमेर का
ज़फ़र अंसारी ज़फ़र
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
मन क़िबल: रास्त कर्दम बर सम्त-ए-ख़ुश-लिक़ाएउ’र्यां सरे चू माहे शोख़े बरहनः पाए
लताफ़त वारसी
बैत
उठी जिस सम्त भी नज़रें तुझी को जल्वा-गर देखा
उठी जिस सम्त भी नज़रें तुझी को जल्वा-गर देखातू ही हर इक नज़ारे में तुझी को चार सू देखा
मोहम्मद समी
शे'र
सिराज औरंगाबादी
नज़्म
सम्त-ए-काशी से चला जानिब-ए-मथुरा बादल
सम्त-ए-काशी से गया जानिब-ए-मथुरा बादलतैरता है कभी गंगा कभी जमुना बादल
मोहसिन काकोरवी
शे'र
चारों-सम्त अंधेरा फैला ऐसे में क्या रस्ता सूझेपर्बत सर पर टूट रहे हैं पाँव में दरिया बहता है
वासिफ़ अली वासिफ़
ग़ज़ल
अज़ीज़ सफ़ीपुरी
ना'त-ओ-मनक़बत
अल्लाह ने उस सम्त की सूरत ही बदल दीजिस सम्त भी रुख़ अपना किया शाह-ए-उमम ने