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नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
शुक्र शिकवे को किया हुस्न-ए-अदा से तू नेहम-सुख़न कर दिया बंदों को ख़ुदा से तू ने
अल्लामा इक़बाल
कलाम
रहता हूँ बे-लब-ओ-दहन रोज़-ओ-शब उन से हम-सुख़नजान-ए-सुख़न है ऐ 'हसन' ये मिरी ख़ामुशी नहीं
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
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कलाम
करें हम किस की पूजा और चढ़ाएँ किस को चंदन हमसनम हम दैर हम बुत-ख़ाना हम बुत हम बरहमन हम
मीर शमसुद्दीन फ़ैज़
दोहरा
ख़्वाजा मुईनुद्दीन के आये हम दरबार
ख़्वाजा मुईनुद्दीन के आये हम दरबारपाई मुरादें जिय की, लागे नाहीं बार
शाह आलम सानी
कुंडलिया
हिंदू कहें सो हम बड़े, मुसलमान कहें हम्म ।
हिंदू कहें सो हम बड़े, मुसलमान कहें हम्म ।एक मूंग दो झाड़ हैं, कुण ज्यादा कुण कम्म।।
दीन दरवेश
शे'र
क़िस्मत जागे तो हम सोएँ क़िस्मत सोए तो हम जागेंदोनों ही को नींद आए जिसमें कब ऐसी रातें होती हैं
आरज़ू लखनवी
सूफ़ी कहानी
मुसलमान,यहूदी और ई’साई का हम-सफ़र होना - दफ़्तर-ए-शशुम
ऐ फ़र्ज़ंद ! एक हिकायत सुन ताकि तू ख़ुश-बयानी और हुनर के चक्कर में ना आए।
रूमी
ग़ज़ल
हम हैं मुश्ताक़-ए-जवाब और तुम हो उल्फ़त सीं बई'दनक़्द-ए-दिल गर तुम कूँ पहुँचा है तो भिजवा देव रसीद