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ग़ज़ल
नज़र को हाल-ए-दिल का तर्जुमाँ कहना ही पड़ता हैख़मोशी को भी इक तर्ज़-ए-बयाँ कहना ही पड़ता है
सूफ़ी तबस्सुम
कृष्ण भक्ति सूफ़ी कलाम
तीर-ए-नज़र वो दिल पे खाए मन का हाल न पूछो हायनस नस में इक आग लगी है प्रेम की अग्नी कौन बुझाए
अब्दुल हादी काविश
बैत
न-बख़्शीद बर हाल-ए-परवानः शम'अ
न-बख़्शीद बर हाल-ए-परवानः शम'अनिगह कुन कि चूँ सोख़्त दर पेश-ए-जम'अ
सादी शीराज़ी
सूफ़ी कहानी
एक शख़्स का अपने हाल-ए-ज़ाहिर के ख़िलाफ़ हवा बांधना
एक शख़्स इ’राक़ से बिलकुल बे सर-ओ-सामान हो कर आया। दोस्तों ने उस से दूरी-ओ-जुदाई के
रूमी
ग़ज़ल
क्यूँ ख़ुशी तुम को हुई हाल-ए-परेशाँ देख करहँस रहे हो क्यूँ मिरे ज़ख़्मों को ख़ंदाँ देख कर
रौशन बदायूँनी
शे'र
किस को सुनाऊँ हाल-ए-ग़म कोई ग़म-आश्ना नहींऐसा मिला है दर्द-ए-दिल जिस की कोई दवा नहीं