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ग़ज़ल
रह-ए-इश्क़ में ये सितम रहे फ़क़त एक मुश्त-ए-ग़ुबार परकभी खाल खींची गई मिरी तो चढ़ा दिया दार पर
अज़ीज़ वारसी देहलवी
ग़ज़ल
सितम की मश्क़ हम अहल-ए-जुनूँ पर जिस क़दर होगीमोहब्बत और भी दिल में हमारे जल्वा-गर होगी
नादिम बल्ख़ी
कलाम
रहम है जिस के सितम में वो सितम-गर और हैहै वफ़ा जिस की जफ़ा में वो जफ़ा गर और है
तसद्दुक़ अ’ली असद
ग़ज़ल
उस मस्त-नज़र का उफ़ रे सितम जिस वक़्त इधर हो जाती हैमजरूह जिगर हो जाता है बेताब नज़र हो जाती है
अज़ीज़ वारसी देहलवी
ग़ज़ल
न अदा मुझ से हुआ उस सितम-ईजाद का हक़मेरी गर्दन पे रहा ख़ंजर-ए-बेदाद का हक़