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गूजरी सूफ़ी काव्य
होना तेरा ज़ंगार है दिन के तेरे दर्पन उपर
होना तेरा ज़ंगार है दिन के तेरे दर्पन उपरलालन छुपा है तुझ मनें तेरा नहीं होना भला
पीर सय्यद मोहम्मद अक़दस
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साखी
बिरह का अंग - जो जन बिरही नाम के सदा मगन मन माहिँ
जो जन बिरही नाम के सदा मगन मन माहिँज्यों दर्पन की सुंदरी किनहूँ पकड़ी नाहिं
कबीर
पद
ककहरा - छछ्छा छिन छिन सुरति सँवार लार दृग के रहौ
छछ्छा छिन छिन सुरति सँवार लार दृग के रहौतन मन दर्पन माँज साज स्रुति से गहौ
तुलसी साहिब हाथरस वाले
ग़ज़ल
क्यूँ न होवे उस कूँ हासिल ताले'-ए-असकंदरीदूर कर ज़ंग-ए-कुदूरत दिल कूँ जो दर्पन किया
तुराब अली दकनी
गीत
धुँदला पड़ता जाए रे दर्पण धुँदला पड़ता जाएकिस की मस्जिद कैसा शिवाला प्रीत है मन मंदिर का उजाला
नख़्शब जार्चवि
कलाम
रहा करते हैं पहरों महव-ए-नज़्ज़ारा में हम अपनेसरापा हो रहे हैं अब तो अपने आप दर्पन हम
मीर शमसुद्दीन फ़ैज़
कृष्ण भक्ति सूफ़ी कलाम
कृष्ण-कनहैया आन बिराजे मोरे मन के मंदिर मेंभगवन मोरे साथ है अब तो द्वार खुले हैं दर्पन के
अब्दुल हादी काविश
ग़ज़ल
कृष्ण-कनहैया आन बिराजे मोरे मन के मंदिर मेंभगवन मोरे साथ है अब तो द्वार खुले हैं दर्पण के
अब्दुल हादी काविश
ना'त-ओ-मनक़बत
मोहम्मद ख़ान निशात
ग़ज़ल
अपने ही हुस्न पे जैसे हो शैदा देख रहा है जल्वा-ए-ज़ेबासामने रख कर अपने दर्पन माशा-अल्लाह माशा-अल्लाह