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कलाम
ऐ जान ग़म-ए-दुश्मन में शोरीदा-सरी क्यूँ हैहम तो अभी ज़िंदा हैं ये जामा-दरी क्यूँ है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
कहो बालीं से उठ जाए तबीब-ए-दुश्मन-ए-जाँ कोविसाल यार काफ़ी है हमारे दर्द-ए-हिज्राँ को
अब्दुल रहीम कुंज्पुरी
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ग़ज़ल
हुए दोस्त दुश्मन मेरे ऐ जाँ तेरी फ़ुर्क़त मेंमिस्ल सच है नहीं अपना कोई होता मुसीबत में
कौसर ख़ैराबादी
सूफ़ी कहावत
हर कि गर्दन बदावा अफ़राज़द। दुश्मन अज़ हर तरफ़ बदू ताज़द।
वह जो अपने सर को दावे से ऊंचा उठाता है, उस पर सभी ओर से दुश्मन हमला कर सकते हैं।