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ग़ज़ल
जो सालिक है तो अपने नफ़्स का इरफ़ान पैदा कर
हक़ीक़त तेरी क्या है पहले ये पहचान पैदा कर
सीमाब अकबराबादी
कलाम
सनम के जिस्म में आ कर नफ़्स का तार कहते हैं
बरहमन बन के ख़ुद गर्दन में हम ज़ुन्नार रखते हैं
आशिक़ हैदराबादी
कलाम
भरोसा कुछ नहीं इस नफ़्स-ए-अम्मारा का ऐ ज़ाहिद
फ़रिश्ता भी ये हो जाए तो इस से बद-गुमाँ रहना