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कृष्ण को चाहता हूँ ’आशिक़-ए-सुब्हाँ हूँ मैंसब मुझे कहते हैं हिन्दू वो मुसलमाँ हूँ मैं
शुक्र है अल्लाह का कि बज़्म-ए-मय-ख़्वारों में आजहज़रत-ए-'असग़र' से भी अपनी शनासाई हुई
दीदा-ए-दिल खोल कर गोर-ए-ग़रीबाँ देख लोग़ाफ़िलो हु का समाँ है और वहाँ कुछ भी नहीं
जो ख़ुदी को अपने मिटाएगा तो ख़ुदा की ज़ात को पाएगातुझे उस का नूर है देखना तो मिसाल-ए-चाँद-गहन में जा
था लुत्फ़-ए-जुनूँ दीदा-ए-ख़ूँ नाबा-फ़िशाँ सेफूलों से भरा दामन-ए-सहरा नज़र आया
ख़ुदी के पुतले ख़ुदा न बन तू वगर्ना रब्ब-ए-जलील मेराजला के कर देगा ख़ाक तुझ को कि उस के बस में जहीम भी है
दिखाई सूरत-ए-गुल पर बहार-ए-शोख़ी-ए-पिन्हाँछुपाया मा'नी-ए-गुल में कुछ हुस्न-ए-नुमायाँ को
फिर ख़याल-ए-यार में चुटकियाँ लेने लगाफिर हमारे दीदा-ए-तर अश्क बरसाने लगे
न पाया कुछ पता उस का ख़ुदा जाने कहाँ है वोज़माने भर में ढूँढ आया ख़ुदा जाने कहाँ है वो
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