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गूजरी सूफ़ी काव्य
'बाजन' कोई न जाने वो किद था और किद थी परगट थाया
'बाजन' कोई न जाने वो किद था और किद थी परगट थायाऊही जाने आप कूँ जिन सब जग न पाया
शैख़ बहाउद्दीन बाजन
ना'त-ओ-मनक़बत
क़ैद में भी शौकत-ए-नाम-ओ-नसब ज़ैनब में हैजो है अहल-ए-बैत की पहचान सब ज़ैनब में है
ताहिर ख़ान
ना'त-ओ-मनक़बत
तुम्हारी ज़ुल्फ़ से है सिलसिला ग़रीब-नवाज़असीर-ए-दाम-ए-मोहब्बत हूँ या ग़रीब-नवाज़
निसार अकबराबादी
शे'र
तुम अपनी ज़ुल्फ़ खोलो फिर दिल-ए-पुर-दाग़ चमकेगाअंधेरा हो तो कुछ कुछ शम्अ' की आँखों में नूर आए
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
क्यों गुल-ए-आरिज़ पे तुमने ज़ुल्फ़ बिखराई नहींचश्मा-ए-ख़ुर्शीद में क्यों साँप लहराया नहीं
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ज़ुल्फ़ आशुफ़्तः-ओ-ख़ूए-कर्दः-ओ-ख़ंदँ-लब-ओ-मस्तपैरहन चाक-ओ-ग़ज़ल-ख़्वान-ओ-सुराही दर दस्त
हाफ़िज़
शे'र
दिल फंसा कर ज़ुल्फ़ में ख़ुद है पशेमानी मुझेदह्र में ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कहती है ज़िंदानी मुझे