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शे'र
मिरे आँसुओं के क़तरे हैं चराग़-ए-राह-ए-मंज़िलउन्हें रौशनी मिली है तपिश-ए-दिल-ओ-जिगर से
जौहर वारसी
ग़ज़ल
ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैंज़बान-ए-हाल रखते हैं ज़बान-ए-दिल समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
सारी ख़िल्क़त राह में है और हो मंज़िल में तुमदोनों 'आलम दिल से बाहर हैं फ़क़त हो दिल में तुम
अहमद हुसैन माइल
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पद
चले मंजल दर मंजल आया बे-दर के मिसल
चले मंजल दर मंजल आया बे-दर के मिसलवहाँ हुई सो नक्कल व सकल तुम सुनो
गोंदा महाराज
ग़ज़ल
हम उस कूचे को जज़्ब-ए-शौक़ की मंज़िल समझते हैंदर-ए-जानाँ के हर ज़र्रा को अपना दिल समझते हैं
शफ़क़ एमाद्पुरी
ग़ज़ल
क्यूँ न ख़ुश हूँ मौत आई मुझ को मंज़िल के क़रीबजान परवाना की निकली शम्अ'-ए-महफ़िल के क़रीब
अफ़क़र मोहानी
कलाम
बुतान-ए-माह-वश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैंकि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं