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ना'त-ओ-मनक़बत
जो था रोज़-ए-अज़ल से ज़ीनत-ए-’अर्श-ए-बरीं होकरवही आया जहाँ में रहमतुल-लिल’आलमीं होकर
शमीम अंजुम वारसी
ना'त-ओ-मनक़बत
रोज़-ए-अज़ल ख़ालिक़ ने जारी पहला ये फ़रमान कियाउन को बना कर शाह-ए-रसूलाँ दो जग का सुल्तान किया
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ग़ज़ल
अज़ल के दिन से बज रहा है साज़-ए-नग़्मा-हा-ए-इ'श्क़तू गोश-ए-दिल से सुन ज़रा तू भी तो मुद्द'आ-ए-इ'श्क़
यादगार शाह वारसी
शे'र
अज़ल से मुर्ग़-ए-दिल को ख़तरा-ए-सय्याद क्या होताकि उस को तो असीर-ए-हल्क़ः-ए-फ़ित्राक होना था
अर्श गयावी
कलाम
हुस्न-ए-मुत्लक़ का अज़ल के दिन से मैं दीवाना थाला-मकाँ कहते हैं जिस को वो मिरा काशाना था
अमीर मीनाई
ना'त-ओ-मनक़बत
अज़ल ही से मोहम्मद की सना-ख़्वाँ है ज़बाँ मेरीबयाज़-ए-सुब्ह-ए-हस्ती पर लिखी है दास्ताँ मेरी