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साखी
प्रेम का अंग - हम तुम्हरी सुमिरन करैं तुम मोहिं चितावौ नाहिं
हम तुम्हरी सुमिरन करैं तुम मोहिं चितावौ नाहिं
सुमिरन मन की प्रीति है सो मन तुम्हीं माहिँ
कबीर
दोहा
विनय मलिका - पूजा अरचन बंदगी नहिं सुमिरन नहिं ध्यान
पूजा अरचन बंदगी नहिं सुमिरन नहिं ध्यान
प्रभुजी अब राखे बने बिर्द बाने की कान
दया बाई
कलाम
साँसों की माला पर सिमरूँ निस-दिन पी का नाम
अपने मन की मैं जानूँ और पी के मन की राम
तुफ़ैल हुश्यारपुरी
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राग आधारित पद
राग बिलावल- हरि बिनु तेरो नाहिं हितू कोई या जगमाहीं
परकाजें बहु दुःख सहे हरि सुमिरण खोया
'सहजो' बाई जमीं धरे शिर धुनि-धुनि रोया
सहजो बाई
ना'त-ओ-मनक़बत
'औघट' जोगी बन के निकलना अहमद नाम की सुमिरन जपना
लिखना अपनी लौह-ए-जबीं पर सल्लल्लाहु अलैहे-वसल्लम
औघट शाह वारसी
कलाम
हुआ ऐ 'फ़ैज़' मा'लूम एक मुद्दत में हमीं थे वो
जपा करते थे जिस के नाम की दिन-रात सुमिरन हम
मीर शमसुद्दीन फ़ैज़
ग़ज़ल
काँधे पर डाले बर्द-ए-यमन होंटन पर कलमे की सुमिरन
दिखला के अना-बशरुन की फबन तौहीद का रंग जमावत है
अकबर वारसी मेरठी
भजन
हरि का भेद कोई नहीं जाने मन माने सो करता है
कोई है ज़ाहिद कोई है सूफ़ी कोई हो मतवाला फिरता है
कोई है साईं कोई है साधू गुरु की सुमिरन करता है
अब्र मिर्ज़ापुरी
अरिल्ल
सुमिरण कौ अंग - अरघ नाँव पाषाण तिरे नर लोई रे
अरघ नाँव पाषाण तिरे नर लोई रे
तेरो नाम कहियो कल माँही न बूड़े कोई रे