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ना'त-ओ-मनक़बत
ताज और तख़्त नहीं चाहिए हाशा मुझ कोदे मदीने की गदाई मिरे आक़ा मुझ को
शाह सालिम क़ादरी बदायूँनी
कलाम
न सवाल है तख़्त-ओ-ताज का न क़सम से ज़र का ख़याल हैमिरे चारा-गर मिरे मेहरबाँ तिरे एक का सवाल है
फ़राज़ वारसी
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फ़ारसी कलाम
बाज़ बर तख़्त-ए-दिलम शुद जल्वः-गर सुल्तान-ए-’इश्क़सोख़्त रख़्त-ए-हस्तियम अज़ आतिश-ए-सोज़ान-ए-इ'श्क़
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
बैत
फ़क़ीरों को है अपना बोरिया ही तख़्त-ए-सुलतानी
फ़क़ीरों को है अपना बोरिया ही तख़्त-ए-सुलतानीसुलैमान-ए-ज़माना है हर इक मोर अपने रौज़न में
शाह अकबर दानापूरी
ग़ज़ल
न ख़्वाहाँ ताज-ए-ख़ुसरव का न मैं तख़्त-ए-सिकंदर कामुक़द्दर उस जगह ले चल भिकारी हूँ मैं जिस दर का
फ़ज़लुर रहमान माह
ना'त-ओ-मनक़बत
न तख़्त-ओ-ताज की ख़्वाहिश न दौलत पर नज़र रखोनज़र के सामने बस उस्वा-ए-ख़ैर-उल-बशर रखौ
रईस अहमद नोमानी
ना'त-ओ-मनक़बत
डॉ. शाह ख़ुसरौ हुसैनी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ब-तख़्त-ओ-बख़्त चूँ नाज़द कि रोज़े रख़्त बर बंदीब-तख़्त-ओ-बख़्त के नाज़द कसे कू रख़्त बर बंदद