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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
महकने को गुल-ए-दाग़-ए-मोहब्बत दिल में है अपनेखटकने को है ख़ार-ए-हसरत-ए-दीदार आँखों में
कैफ़ी हैदराबादी
शे'र
फ़स्ल-ए-गुल आई या अजल आई क्यों दर-ए-ज़िंदाँ खुलता हैया कोई वहशी और आ पहुंचा या कोई क़ैदी छूट गया
फ़ानी बदायूँनी
शे'र
शैदा-ए-रू-ए-गुल न हैं शैदा-ए-क़द्द-ए-सर्वसय्याद के शिकार हैं इस बोसताँ में हम
ख़्वाजा हैदर अली आतिश
शे'र
शाख़-ए-गुल हिलती नहीं ये बुलबुलों को बाग़ मेंहाथ अपने के इशारे से बुलाती है बहार
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
गुल ही तन्हा न ख़जिल है रुख़-ए-रनगीं से तिरेनर्गिस आँखों के तिरे सामने शरमाती है