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मुझ दाग़-नसीब की लहद परलाले का वो बीज बो रहे हैं
बंद रखने से रंग-ओ-बू जाएपर्दे पर्दे में आबरू जाए
तुम ही से 'आलम में रंग-ओ-बूतिरी शान-ए-जल्ला-जलालुहु
दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आताबू भी ऐ चारागर नहीं आती
कसरत में बू है वहदत की 'रिज़वाँवहदत में लज़्ज़त वसलत की रिज़वाँ
रँग तेरा ये चमन में बू तेरीख़ूब देखा तो बाग़बाँ तू है
याद करता है शाह हैदर कोबंदा-ए-‘काविश’ जो बू-तुराब का है
कभी बदली है इस चमन की हवाफूल में रँग बू कली में नहीं
तेरी सिफ़ात का आईना हो मेरी हस्तीतेरा जमाल तेरा रंग तेरी बू आए
सब है मुझ में वो हूँ बशर 'ग़ौसी'बुल-अ'जब तुर्फ़ा-ए-चीसताँ हूँ मैं
है अज्र-ए-ख़ैर नेकी शर बदी हैवही काटा किए जो बो गए हम
सबा लाती है बू भर-भर के दामाँइलाही कौन गुल उस जा खिला है
पाक रखा पाक-दामन से हिसाबबू से भी गिन के दिए गिन के लिए
बाग़-ए-आ'लम का इंक़लाब न पूछअब वो पहला सा रंग-ओ-बू ही नहीं
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