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कलाम
न जाने क्या मआल आया नज़र मश्क़-ए-तसव्वुर काफड़क उठे जमाल-ओ-जल्वा-ए-दिल देखने वाले
सीमाब अकबराबादी
कलाम
हम को भी पाएमाल कर उम्र तिरी दराज़ होमस्त-ए-ख़िराम-ए-नाज़ इधर मश्क़-ए-ख़िराम-ए-नाज़ हो
बेदम शाह वारसी
कलाम
ख़ूगर-ए-ज़ुल्म-ओ-जफ़ा मुझ को बनाया था मगरफिर ये अग़्यार पे क्यूँ मश्क-ए-जफ़ा होती है
शाह मोहसिन दानापुरी
कलाम
इस वक़्त पीतम की निगह करती है मश्क़-ए-दिलबरीये आन ग़फ़लत की नहीं फ़रज़ाना हो फ़रज़ाना हो