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कलाम
मा'रिफ़त के दंगल में चंद हैं जो टिकते हैंज़र्फ़ अपना अपना है अपनी अपनी बाज़ी है
अज़ीज़ुद्दीन रिज़वाँ क़ादरी
कलाम
हर इक का ज़र्फ़ देख के देता हूँ जाम-ए-राज़या'नी के मय-कशों का मैं परवरदिगार हूँ
अज़ीज़ुद्दीन रिज़वाँ क़ादरी
कलाम
साहिल की बहुत फ़िक्र न कर ऐ दिल-ए-कम-ज़र्फ़बहर-ए-ग़म-ए-उल्फ़त का किनारा नहीं होता
ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
कलाम
दे भी सकता हूँ 'नसीर' ईंट का पत्थर से जवाबवो तो रखा है मिरे ज़र्फ़ ने ख़ामोश मुझे
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
शराब-ए-'अब्दियत हर पीने वाले को नहीं पचतीये वो मय है कि जिस को ज़र्फ़ वाले ही पचाते हैं
कामिल शत्तारी
कलाम
ज़ाहिद आ जाने दे ख़ैर अब तो इसी में पी लेये तिरा ज़र्फ़-ए-वुज़ू था मुझे मा'लूम न था
अकबर वारसी मेरठी
कलाम
कहाँ से ज़र्फ़ लाऊँगा कि ताक़त घटती जाती हैछुपा दे क़ब्र में काश अब मिरा राज़-ए-निहाँ मुझ को
शाकिर कानपुरी
कलाम
जो कुछ मिलता है इंसाँ को ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मिलता हैकि शय रखने से पहले देखते हैं जौफ़-ए-बर्तन का