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खड़ा हूँ कब से मैं दर पर तिरे मुश्ताक़ दर्शन का

क़ाज़ी उमराव अली जमाली

खड़ा हूँ कब से मैं दर पर तिरे मुश्ताक़ दर्शन का

क़ाज़ी उमराव अली जमाली

MORE BYक़ाज़ी उमराव अली जमाली

    खड़ा हूँ कब से मैं दर पर तिरे मुश्ताक़ दर्शन का

    इधर भी इक निगाह-ए-लुत्फ़ सदक़ा अपने जोबन का

    नमूना है तिरा रू-ए-दिल-आरा साफ़ गुलशन का

    है नर्गिस-आँख 'आरिज़-ए-गुल दहन-ग़ुन्चा है सोसन का

    ये है हूरों का तालिब वो बुतान-ए-सामरी फ़न का

    मैं मा’क़ूल ज़ाहिद का क़ाइल हूँ बरहमन का

    दिखा कर रू-ए-अनवर ले उड़ा वो दिल को पहलू से

    समाअ'त क्यूँ होगी है वक़ूआ रोज़-ए-रौशन का

    वो ज़ुल्फ़ें 'आशिक़-ए-शोरीदा-सर को डस गईं आख़िर

    नहीं आसान हाथों पर खिलाना काली नागिन का

    डरें क्यूँ अहल-ए-’इस्मत ताबिश-ए-ख़ुर्शीद-ए-महशर से

    कि होगा सर पर उन के साएबाँ यूसुफ़ के दामन का

    जो देखा ग़ौर से शिर्क ख़फ़ी उस में भी मख़्फ़ी है

    कि कोई दोस्त का ममनूँ कोई शाकी है दुश्मन का

    जो कुछ मिलता है इंसाँ को ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मिलता है

    कि शय रखने से पहले देखते हैं जौफ़-ए-बर्तन का

    ख़ुदा की हिक़मतों को कब कोई पहचान सकता है

    कि क्यूँ है ख़ोशा-चीं कोई कोई मालिक है ख़िर्मन का

    'जमाली' से तो जान-ए-जहाँ ये हो नहीं सकता

    कि दुश्मन से तिरा शिकवा करे और तुझ से दुश्मन का

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