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कलाम
ख़्वाहिश-ए-जन्नत न गुलज़ार इरम चाहूँ 'फ़राज़'हूँ तिरा बंदा तिरे दर पर सुकूँ पाता हूँ मैं
फ़राज़ वारसी
कलाम
करूँ फिर अ'र्ज़-ए-जल्वा हौसला इतना कहाँ मेराफ़राज़-ए-तूर पर हो तो चुका है इम्तिहाँ मेरा
सीमाब अकबराबादी
कलाम
मैं दीवाना तो हूँ लेकिन 'फ़राज़' उस का दिवाना हूँहसीनों का जो सुल्ताँ है परी-ज़ादों का है अफ़सर
फ़राज़ वारसी
कलाम
किसी बे-वफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ 'फ़राज़' कब तकजो तुम्हें भला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ
अहमद फ़राज़
कलाम
जबीं सज्दे में हो और सामने तू हो निगाहों में'फ़राज़' आ'लम से जाना जब हमारा हो तो ऐसा हो
फ़राज़ वारसी
कलाम
मैं मंगता हूँ मगर वल्लाह 'फ़राज़' इस दर का मंगता हूँसख़ावत में न सानी जिस के दर का कोई दर होगा