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कलाम
बा-वज़ू हो कर पिएँ सब मय-कदे में मिल के मुलहो रहे हैं एक रिंद ’आरिफ़-ओ-’आक़िल के क़ुल
बाक़ीर शाहजहांपुरी
कलाम
ज़हे तक़्वा कि मुँह बा-जुब्बा-ओ-दस्तार मी रक़्सममनम ऐ क़तरा-ए-शबनम बा-नोक-ए-ख़ार मी रक़्सम
अज्ञात
कलाम
तेरी याद ऐसी है बा-वफ़ा पस-ए-मर्ग भी ना हुई जुदातेरी याद में हमीं मिट गए तेरी याद दिल से मिटी नहीं