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कलाम
अफ़्साना मेरे दर्द का उस यार से कह दोफ़ुर्क़त की मुसीबत को दिल-आज़ार से कह दो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
कलाम
न छेड़ो हम-नशीनो शाम-ए-ग़म 'पुरनम' को रोने दोमुसीबत में किसी की दिल-लगी अच्छी नहीं लगती
पुरनम इलाहाबादी
कलाम
क़ियामत सर पे जो टूटे मुसीबत दिल पे जो आएहक़ीक़त में उसे हम मर्ज़ी-ए-मौला समझते हैं
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत के भी क्या दिन थे अरे तौबाकि अब हर शाम इक शाम-ए-मुसीबत होती जाती है