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कलाम
बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता ने मुझे रौज़ा पे जाने न दियाचश्म-ओ-दिल सीने कलेजे से लगाने न दिया
मुस्तफ़ा रज़ा ख़ान
कलाम
हर क़दम के साथ मंज़िल लेकिन इस का क्या 'इलाज'इश्क़ ही कम-बख़्त मंज़िल-आश्ना होता नहीं
जिगर मुरादाबादी
कलाम
ख़याल-ए-पीर का जिस के हुआ है दिल में नशिस्तवो तिफ़्ल ख़ूब जवाँ-बख़्त है और पीर-परस्त
शाह तुराब अली क़लंदर
कलाम
फ़रेफ़्ता हूँ मैं जिस पर वो है फ़िदा मुझ परये हुस्न-ए-तालि’-ओ-बख़्त-ए-सई’द है मेरा