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कलाम
ज़ुहूर-ए-नूर-ए-रहमत है तमाम अतराफ़ का'बा मेंक़लम क्या ख़ाक उठाएगा कोई औसाफ़ का'बा में
हाजी वारिस अली शाह
कलाम
अगर का'बः का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाएतो फिर सज्दः मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
बेदम शाह वारसी
कलाम
कभी का'बे में पाता हूँ कभी बुत-ख़ाने के अंदरलगा के तुझ से दिल फिरता हूँ मारा-मारा मैं दर-दर
फ़राज़ वारसी
कलाम
नाँ रब्ब अर्श मुअ'ल्ला उत्ते न रब्ब ख़ाने-काबे हूना रब्ब इलम किताबीं लब्भा, न रब्ब विच महाराबे हू
सुल्तान बाहू
कलाम
बीत गया हंगाम-ए-क़यामत रोज़-ए-क़यामत आज भी हैतर्क-ए-तअल्लुक़ काम न आया उन से मोहब्बत आज भी है